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Sunday, August 30, 2020

मरुस्थल या रेगिस्तान , मरुस्थल एवं रेगिस्तान में अंतर

मरुस्थल का शाब्दिक अर्थ होता है वह स्थल जो जीवन जीने के अनुकूल न हो।
इसका निर्धारित जल के वर्षा रूप में 250mm से कम की उपलब्धता वाली भूमि को मरुस्थल कहा जाता है। मरुस्थल का गर्म गर्म होना आवश्यक नही है। विश्व के कई मरुस्थल बर्फ से ढके हुए हैं।
रेगिस्तान उस भूमि को कहते हैं जहाँ भूमि बालू से ढकी हो एवं वर्षा निर्धारित से कम होती है।
सभी रेगिस्तान मरुस्थल होते हैं, किन्तु यह आवश्यक नही की सभी मरुस्थल रेगिस्तान हो।

Tuesday, September 10, 2019

देश जहाँ हिंदी भाषा बोली जाती है ।

देश जहाँ हिन्दी भाषा बोली जाती है



भारत

पकिस्तान

बांगलादेश

नेपाल

म्यांमार

मलेशिया

यूके

अमरीका

दक्षिण अफ्रीका

सऊदी अरब

फिजी

सूरीनाम

गुयाना

मॉरीशस

टोबैगो


  • वर्तमान समय मे हिंदी विश्व मे सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में एक है , यह चीन के भाषा मंदारिन से भी अधिक बोली जाती है।





Monday, August 19, 2019

सड़क पर ओवरटेक करने का नियम





  • ओवरटेक करने से पहले सड़क की पट्टी जरूर देखें।

Monday, July 29, 2019

चूड़ाकरण संस्कार मुंडन


 अन्नप्राशन के बाद आठवां संस्कार चूड़ाकर्म या चौल कर्म था। जिसमें पहली बार बालक के बाल काटे जाते थे। गृह्यसूत्रों  के अनुसार जन्म के प्रथम वर्ष की समाप्ति अथवा तीसरे  वर्ष की समाप्ति के पूर्व या संस्कार संपन्न किया जाना चाहिए । कुछ स्मृतिकार इसकी अवधि पांचवी तथा सातवें वर्ष तक रखते हैं आश्वलायन का विचार है कि चूड़ाकर्म तीसरे या पांचवें वर्ष में होना प्रशंसनीय है किंतु में सातवें वर्ष अथवा उपन्नयन के समय भी किया जा सकता है ।





कुछ शास्त्रों के अनुसार कुल तथा धर्म की रीत रिवाज के अनुसार इसे करना चाहिए पहले यह संस्कार की घर पर किया जाता था । बाद में मंदिर या देवता के सामने किया जाने लगा । इसके लिए एक शुभ दिन या मुहूर्त निश्चित किया जाता था ।प्रारंभ में संकल्प , गणेश पूजा , मंगल श्राद्ध आदि सम्पन्न होता था  तथा ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था । तब उपरांत माँ बच्चे को स्नान करवाकर नए वस्त्रों में लेकर यज्ञ अग्नि के पश्चिम की ओर बैठती थी और उसकी पूजा-अर्चना के बीच बच्चे का बाल काटा जाता था । कटे हुए बाल को गाय के गोबर में छिपा दिया जाता था । बालक के सिर पर मक्खन अथवा दही का लेप किया जाता था। बालो को गोबर में ढकने के पीछे यह धारणा थी  कि  बाल शरीर के अंग है अतः शत्रुओं द्वारा द्वारा जादू टोना के शिकार ना हो जाए। इसी कारण से उन्हें सबकी पहुंच से बाहर रखा जाता था। इस संस्कार के पीछे यह भावना भी थी कि बच्चे को स्वच्छता और सफाई का ज्ञान कराया जा सके जो कि स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

अन्नप्राशन संस्कार

हिंदू धर्म का सातवा संस्कार यह बच्चे के जन्म के छठे मास में अन्नप्राशन नामक संस्कार होता था। जिसमें प्रथम बार उसे पक्का हुआ अन्य खिलाया जाता था  । इसमें दूध, घी ,दही तथा पका हुआ चावल खिलाने का विधान था। गृह सूत्रों में इस संस्कार के समय विभिन्न पक्षियों के मांस एवं मछली खिलाए जाने का भी विधान मिलता है । उनकी वाणी में प्रवाह लाने के लिए भारद्वाज पक्षी का मांस तथा उसमें कोमलता लाने के लिए मछली खिलाई जाती थी। इसका उद्देश्य बच्चे को शारीरिक तथा बौद्धिक दृष्टि से स्वस्थ बनाना था । बाद में केवल दूध और चावल खिलाने की प्रथा प्रचलित हो गई ।





अन्नप्राशन संस्कार के दिन भोजन को पवित्र ढंग से वैदिक मंत्रों के बीच पकाया जाता था। सर्वप्रथम वाग्देवी को आहुति दी जाती थी अंत में बच्चे का पिता सभी अन्नो को मिला कर बच्चे को उसे ग्रहण कर आता था । तत्पश्चात ब्राह्मणों को भोज देकर यह संस्कार की समाप्ति की जाती थी। इस संस्कार का उद्देश्य था कि एक उचित समय पर बच्चा मां का दूध पीना छोड़ कर अन्न आदि से अपना निर्वाह करने योग्य बन सके।

Sunday, July 28, 2019

निष्क्रमण एवं अन्नप्राशन

निष्क्रमण- बच्चे के जन्म के तीसरे व चौथे माह में यह संस्कार संपन्न होता था जिसमें उसे प्रथम बार घर से बाहर निकाला जाता था यह संस्कार माता-पिता संपन्न करते थे उस दिन घर के आंगन में एक चौकोर भाग को गोबर तथा मिट्टी से लीपा जाता था उस पर स्वास्तिक का चिन्ह बना कर धान छींट दिया जाता था ।बच्चे को स्नान कराकर नए परिधान में यज्ञ के सामने करके वेद मंत्रों का पाठ किया जाता था।  फिर मां बच्चे को लेकर बाहर निकलती थी तथा उसे प्रथम बार सूर्य के दर्शन कराए जाते थे इसी के साथ उसका घर से बाहरी वातावरण का संपर्क हो जाता था

नामकरण संस्कार

हिंदू धर्म का यह पांचवा संस्कार है इसमें बच्चे के जन्म के दसवे अथवा बारहवें दिन नामकरण संस्कार होता था। जिसमें उसका नाम रखा जाता था।  प्राचीन हिंदू समाज में नामकरण का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था । बृहस्पति के अनुसार नाम ही लोक व्यवहार का प्रथम साधन है। यह गुण एवं भाग्य का भी आधार होता है  । इसी से मनुष्य यश प्राप्त करता है प्राचीन शास्त्रों में इस संस्कार का विस्तृत विवरण मिलता है।  इस संस्कार में के लिए शुभ तिथि नक्षत्र एवं मुहूर्त का चयन किया जाता था यह ध्यान रखा जाता था कि बच्चे का नाम, परिवार समुदाय एवं वर्ण  का बोधक हो।  नक्षत्र मास तथा कुल देवता के नाम पर अथवा व्यवहारिक नाम ही बच्चे को प्रदान किया जाता था । कन्या का नाम मनोहर मंगल सूचक स्पष्ट अर्थ वाला तथा  अंत में दीर्घ अक्षर वाला रखे जाने का विधान था मनु के अनुसार बच्चे का नाम उसके वर्ण का दो तक होना चाहिए ।उनके अनुसार ब्राह्मण का नाम मंगल सूचक ,क्षत्रिय का नाम बल सूचक, वैश्य का नाम धन सूचक तथा शूद्र का नाम निंदा सूचक होना चाहिए । विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मण अपने नाम के अंत में शर्मा,  क्षत्रिय वर्मा, वैश्य गुप्त और शूद्र दास लिखें।




नामकरण संस्कार के पूर्व घर को धोकर पवित्र किया जाता था माता तथा शिशु स्नान करते थे तत्पश्चात माता बच्चे के सिर को जल से भिगोकर तथा साफ कपड़े से उसे ढक कर उसके पिता को दे दी थी।  फिर प्रजापति, नक्षत्र देवताओं अग्नि, सोम आदि को बलि दी जाती थी। पिता बच्चे को स्वास को स्पर्श करता था तथा फिर उसका नामकरण किया जाता था संस्कार के अंत में ब्राह्मणों को ब दिया जाता था

Friday, July 26, 2019

जातकर्म संस्कार

यह हिंदू धर्म का चौथा संस्कार है । शिशु के जन्म के समय जात कर्म नामक संस्कार संपन्न होता था।  सामान्यतः यह बच्चे की नाल काटने की पूर्व ही इसे किया जाता था । उसका पिता सविधि स्नान करके उसके पास जाता था तथा पुत्र को स्पर्श करता था एवं उसे सुघता था।  इस अवसर पर वह उसके कानों में आशीर्वादात्मक मंत्रों का उच्चारण करता था जिसके माध्यम से दीर्घायु एवं बुद्धि की कामना की जाती थी । तत्पश्चात बच्चे को मधु तथा घृत  चटाया जाता था फिर प्रथम बार वह मां का स्तनपान करता था   संस्कार की समाप्ति के बाद ब्राह्मणों को उपहार दिए जाते थे तथा  भिक्षा बांटी जाती थी । सभी माता एवं शिशु की दीर्घ एवं स्वास्थ्य जीवन की कामना करते थे।

सीमन्तोन्नयन


सीमंतोन्नयन संस्कार हिंदू धर्म का तीसरा संस्कार है । यह गर्भाधान के चौथे से आठवें मार्च तक यह संस्कार संपन्न होता था । इसमें स्त्री के केसों को ऊपर उठाया जाता था । ऐसी अवधारणा थी कि गर्भवती स्त्री के शरीर में प्रेत आत्माएं नाना प्रकार की बाधा पहुंचाती है जिनके निवारण के लिए कुछ धार्मिक कृत्य किए जाने चाहिए । इसी उद्देश्य इस संस्कार का विधान किया  गया था । इसके माध्यम से गर्भवती नारी की समृद्धि तथा भ्रूण के दीर्घायु की कामना की जाती थी ।इस संस्कार के संपादित होने के दिन स्त्री व्रत रखती थी।
 पुरुष मातृ पूजा करता था तथा प्रजापति देवता को आहुतियां दी जाती थी । इस समय वह अपने साथ कच्चे उदुम्बर फलों का एक गुच्छा तथा सफेद चिन्ह वाले शाही के तीन काटे रखता था । स्त्री अपने केशों में सुगंधित तेल डालकर यज्ञ मंडप में प्रवेश करती थी । जहां वेद मंत्रों के उच्चारण के बीच उसका पति उसके बालों को ऊपर उठाता था । बाद में गर्भवती स्त्री के शरीर पर एक लाल चिन्ह  बनाया जाने लगा जिससे भूत-प्रेत आदि  उससे दूर रहें । इस संस्कार के साथ स्त्री को सुख तथा संतवाना प्रदान की जाती थी।

पुंसवन संस्कार

गर्भाधान के तीसरे माह में पुत्र की प्राप्ति के लिए यह संस्कार संपन्न किया जाता है। पुंसवन का अर्थ है वह अनुष्ठान या कर्म जिसके द्वारा पुत्र की उत्पत्ति हो । इस संस्कार के माध्यम से उन देवी देवताओं को पूजा द्वारा प्रसन्न किया जाता है जो गर्भ में शिशु की रक्षा करते थे। चंद्रमा के  पुष्य नक्षत्र में होने पर यह संस्कार संपन्न किया जाता  था । क्योंकि यह समय पुत्र प्राप्ति के लिए उपयुक्त माना गया है ।





 रात्रि के समय वट वृक्ष की छाल का रस निचोड़ कर स्त्री के नाक के दाहिने छिद्र में डाला जाता था इससे गर्भपात की आशंका समाप्त हो जाती थी। तथा  सभी बाधाएं दूर हो जाती थी।  हिंदू समाज का पुत्र का बड़ा ही महत्व है । उसी से परिवार की निरंतरता बनी रहती थी।  इस प्रकार पुंसवन संस्कार का उद्देश्य परिवार तथा इसके  माध्यम से समाज का कल्याण करना।

गर्भाधान

गर्भाधान जीवन का प्रथम संस्कार है। जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी पत्नी के गर्भ में बीज स्थापित करता हैं। इस संस्कार का प्रचलन उत्तर वैदिक काल से हुआ । सूत्रों तथा स्मृति ग्रंथों में इसके लिए उपयुक्त समय एवं वातावरण का उल्लेख मिलता है ।इसके लिए आवश्यक है कि स्त्री रितु काल में हो। रितु काल के बाद की चौथी से सोलहवीं रात्रियां गर्भाधान के लिए उपयुक्त बताई गई हैं ।अधिकांश गृहसूत्रोंमें तथा स्मृतियों में चौथी रात्रि को शुद्ध माना गया है।  आठवीं , पन्द्रहवी , अठारहवीं एवं तीसरी रात्रि में गर्भाधान वर्जित था ।
सोलह रात्रियों  में प्रथम चार , ( पहली, दूसरी ,तीसरी ,और चौथी,)  ग्यारहवीं एवं तेरहवीं  निन्दित कही गई हैं । तथा शेष दस रात्रि को श्रेयस्कर बताया गया है।

 गर्भाधान के लिए रात्रि का समय ही उपयुक्त था दिन में यह कार्य वर्जित था।  प्रश्नोपनिषद में कहा गया है कि दिन में गर्भ धारण करने वाली स्त्री से अभागी दुर्बल एवं अल्प आयु वाली संतान उत्पन्न होती हैं।  किंतु जो व्यक्ति अपनी पत्नी से दूर विदेश में रहते थे उनके लिए इस नियम में छूट प्रदान की गई थी।

गर्भाधान के लिए रात्रि का अंतिम पहर भी अभीष्ट माना गया ।समरात्रियों में गर्भाधान होने पर पुत्र एवं विषम में कन्या उत्पन्न होती है ऐसी मान्यता थी।  प्राचीन काल में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी जिसके अंतर्गत स्त्री अपने पति की मृत्यु अथवा उनके नपुंसक होने पर उसके भाई अथवा संगोत्र व्यक्ति से संतानोत्पत्ति  के लिए  गर्भाधान करती थी । किंतु अधिकांश ग्रंथों में इसकी निंदा की गई है। मनु ने इसे पशु धर्म बताया है।





गर्भाधान प्रत्येक विवाहित पुरुष तथा स्त्री के लिए पवित्र एवं अनिवार्य संस्कार था। जिसका उद्देश्य स्वस्थ सुंदर एवं सुशील संतान प्राप्त करना था । पराशर ने यह व्यवस्था दी कि जो पुरुष स्वस्थ होने पर भी रितुकाल में अपनी पत्नी से समागम नहीं करता है वह बिना किसी संदेह के भ्रूण हत्या का भागी होता है। स्त्री के लिए भी अनिवार्य है कि वह रितुकाल में स्नान के बाद अपने पति के पास जाए । पाराशर के अनुसार ऐसा ना करने वाली स्त्री का दूसरा जन्म सुकरी ( सुअर) के रूप में होता है । गर्भाधान पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रथम संस्कार एवं महत्वपूर्ण संस्कार है। सामाजिक तथा धार्मिक दोनों ही दृष्टि से इसका महत्व था। वैदिक युग के लिए स्वस्थ एवं बलिष्ट संतान उत्पन्न करना प्रत्येक आर्य का कर्तव्य था ।निसंतान व्यक्ति आदर का पात्र नहीं था । ऐसी मान्यता था कि जिस पिता के जितने अधिक पुत्र होंगे वह स्वर्ग में उतनी अधिक सुख प्राप्त करेगा। पितृ ऋण से मुक्ति भी संतान उत्पन्न करने से मिलती है।

Thursday, July 25, 2019

संस्कार

हिंदू व्यवस्था में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य किया गया ताकि वह व्यक्ति सामाजिक विकास के लिए उपयुक्त बन सके । सबर का विचार है कि संस्कार वह क्रिया है जिसके संपन्न होने पर कोई वस्तु किसी उद्देश्य के योग्य बनती है ।शुद्धता , पवित्रता धार्मिकता एवं आस्तिकता संस्कार की प्रमुख विशेषताएं हैं।

ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जन्मना असंस्कृत होता है किंतु संस्कारों के माध्यम से वह सुसंस्कृत हो जाता है । इनसे उनमें अंतर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास हो पाता है तथा वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है। संस्कार व्यक्ति के जीवन में आने वाली बाधाओं का निवारण करते हैं तथा उनके लिए प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते हैं । इसके माध्यम से मनुष्य आध्यात्मिक विकास भी करता है । मनु के अनुसार अनुसार संस्कार शरीर को विशुद्ध करके उसे आत्मा का उपयुक्त स्थल बनाते हैं । इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास के लिए भारतीय संस्कृति में संस्कारों का विधान प्रस्तुत किया गया है।

संस्कार जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत संपन्न किए जाते हैं अधिकांश ग्रंथों में अंत्येष्टि का उल्लेख नहीं मिलता है । स्मृति ग्रंथों में संस्कारों का विवरण प्राप्त होता है इनकी संख्या 40 तथा गौतम धर्मसूत्र में 48 मिलती है । मनु में गर्भाधान एवं मृत्यु पर्यंत 13 संस्कारों का उल्लेख किया है। बाद में स्मृतियों में इनकी संख्या 16 स्वीकार की गई है जो आज भी प्रचलित है । संस्कार शब्द का उल्लेख वैदिक तथा ब्राह्मण साहित्य में नहीं मिलता है।


हिंदू समाज शास्त्रियों ने संस्कारों का विधान विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया । मुख्यतः हम इन्हें दो भागों में विभाजित कर सकते हैं (1) लोकप्रिय उद्देश्य तथा (2) सांस्कृतिक उद्देश्य


संस्कार के लोकप्रिय उद्देश्यों में तीन मुख्य हैं
1. अशुभ शक्तियों का निवारण
2. भौतिक समृद्धि की प्राप्ति
3. भावनाओं की अभिव्यक्ति


अशुभ शक्तियों का निवारण

प्राचीन हिंदुओं का विश्वास था कि जीवन में अशुभ एवं आसुरी शक्तियों का प्रभाव होता है जो अच्छा तथा बुरा दो प्रकार का फल देती हैं अतः उन्हें संस्कारों के माध्यम से उनके अच्छे प्रभाव को आकर्षित करने तथा बुरे प्रभावों को हटाने का प्रयास किया । जिससे मनुष्य का स्वास्थ्य एवं निर्विघ्नं विकास हो सके इस उद्देश्य से प्रेत आत्माओं एवं आसुरी शक्तियों को अन्न आहुति आदि द्वारा शांत किया जाता था । गर्भाधान, जन्म ,बचपन आदि के समय इस प्रकार की आहुतियां दी जाती थी । तथा कभी-कभी देवताओं के मंत्रों द्वारा आराधना की जाती थी ताकि वह आसुरी शक्तियों को निष्क्रिय कर सकें। गर्भाधान के समय विष्णु ,उपनयन के समय बृहस्पति ,विवाह के समय प्रजापति आदि स्तुति की जाती थी।







भौतिक समृद्धि की प्राप्ति -
संस्कारों का विधान भौतिक समृद्धि तथा पशुधन ,पुत्र ,दीर्घायु शक्ति ,बुद्धि, संपत्ति आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से भी किया जाता रहा है । ऐसी मान्यता थी कि प्रार्थना ओं के द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को देवता तक पहुंचाता है तथा प्रत्युत्तर में देवता उसे भौतिक समृद्धि एवं वस्तुएं प्रदान करते हैं । संस्कारों का यह उद्देश्य आज भी हिंदुओं के मस्तिष्क में प्रबल रूप से विद्यमान है।



भावनाओं की अभिव्यक्ति -
संस्कारों के माध्यम से मनुष्य अपने हर्ष एवं दुख की भावना को प्रकट करता था ।पुत्र जन्म ,विवाह आदि के अवसर पर आनंद एवं उल्लास को व्यक्त किया जाता था।  बालक को जीवन में मिलने वाली प्रत्येक उपलब्धि पर उसके परिवार के लोग खुशी मनाते थे।  इसी प्रकार मृत्यु के अवसर पर शोक व्यक्त किया जाता था इस प्रकार संस्कार अभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम भी बनते थे।



सांस्कृतिक उद्देश्य -
हिंदू विचारको ने संस्कारों के पीछे उच्च आदर्शों का उद्देश्य भी रखा । मनुस्मृति में कहा गया है कि संस्कार व्यक्ति की अशुद्धियों का नाश करके उसके शरीर को पवित्र बनाते हैं ।ऐसी धारणा थी कि गर्भस्थ शिशु के शरीर में कुछ अशुद्धियां होती है जो जन्म के बाद संस्कारों के माध्यम से ही दूर की जा सकती हैं । मनुस्मृति में कहा गया है कि अध्ययन , व्रत , होम यज्ञ , पुत्र उत्पत्ति से शरीर शुद्ध हो  जाता है । यह भी मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति जन्मना शुद्ध होता है संस्कारों से द्विज कहा जाता है।  विद्या से विप्रत्व प्राप्त होता है।

सांस्कृतिक उद्देश्यों में तीन उद्देश प्रमुख है
1. नैतिक उद्देश्य
2. व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास
3. आध्यात्मिक प्रगति


नैतिक उद्देश्य -
संस्कारों के द्वारा मनुष्य के जीवन में नैतिक गुणों का समावेश होता है । गौतम ने 40 संस्कारों के साथ साथ 8 गुणों का भी उल्लेख किया है तथा व्यवस्था दी है कि संस्कारों के साथ इन गुणों का आचरण करने वाला व्यक्ति ही ब्रह्मा को प्राप्त करता है।  यह है - दया, सहिष्णुता,  ईर्ष्या ना करना , शुद्धता , शांति, सदाचरण तथा लोभ एवं लिप्सा का त्याग । प्रत्येक संस्कार के साथ कोई ना कोई नैतिक आचरण संयुक्त रहता था।



व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास -
संस्कारों के माध्यम से मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास होता था । जीवन के प्रत्येक चरण में संस्कार मार्गदर्शन का काम करते थे । उनकी व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि वे जीवन के प्रारंभ से ही व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण पर अनुकूल प्रभाव डाल सके।  उपनयन आदि संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति को शिक्षित एवं सुसंस्कृत बनाना था। विवाह के माध्यम से वह पूर्ण गृहस्थ बन जाता था तथा देश और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निष्ठा पूर्वक निर्वाह करता था । वस्तुतः हिंदू चिंतकों ने संस्कारों को व्यक्ति के लिए अनिवार्य बनाकर उनके सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।


आध्यात्मिक प्रगति -
संस्कार व्यक्ति की भौतिक उन्नति के साथ साथ ही आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त करते थे । सभी संस्कारों के साथ धार्मिक क्रियाएं सम्बध्द होती थी। इन्हें संपन्न करके मनुष्य भौतिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख भी प्राप्त करता था। उसे यहां अनुभूति होती थी कि जीवन की समस्त क्रियाएं आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त करने के लिए की जा रही हैं । संस्कारों के अभाव में हिंदू जीवन पूर्णतया भौतिक हो गया होता। प्राचीन हिंदुओं का विश्वास था कि संस्कारों के विधिवत पालन से ही भौतिक बाधाओं से बचा जा सकता है तथा भवसागर को पार किया जा सकता है।  इस प्रकार संस्कार मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन के बीच मध्यस्थता का कार्य करते थे। संस्कार हिंदू जीवन पद्धति का अभिन्न अंग था।

16 संस्कार निम्न प्रकार हैं
1. गर्भाधान
2. पुंसवन
3. सीमन्तोन्नयन
4. जातकर्म
5. नामकरण
7. अन्नप्राशन
8. चूड़ाकरण
9. कर्ण वेधन
10. विद्यारंभ
11. उपनयन
12. वेदारम्भ
13. केशान्त
14. समावर्तन
15. विवाह
16. अंत्येष्टि




 


पुरुषार्थ

हिंदू शास्त्र कारों ने मनुष्य तथा समाज की उन्नति के निमित्त जिन आदर्शों का विधान प्रस्तुत किया है उन्हें पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती है पुरुषार्थ का संबंध मनुष्य तथा समाज दोनों से है यह मनुष्य तथा समाज के बीच संबंधों की व्याख्या करते हैं उन्हें नियमित बनाते हैं तथा उनके पारस्परिक संबंधों को नियंत्रित भी करते हैं

पुरुषार्थ का उद्देश्य मनुष्य की भौतिक तथा आध्यात्मिक सुखों के बीच सामंजस्य स्थापित करना है भारतीय परंपरा भौतिक सुखों को क्षणिक मानते हुए भी उन्हें पूर्णतया त्यागने हेतु नहीं समझती हैं बल्कि उनके प्रति अतिशय आसक्ति का ही विरोध करती हैं मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है।

भौतिक सुखों को आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है बाधक नहीं दोनो घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं दोनों का संबंध में स्वरूप पुरुषार्थ ओं के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है। पुरुषार्थ का संक्षेप में अर्थ होता है कि मनुष्य को क्या प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

पुरुषार्थ चार है
1 धर्म
2 अर्थ
3 काम
4 मोक्ष

इनमें अर्थ तथा काम भौतिक सुखों के प्रतिनिधि हैं जबकि धर्म तथा मोक्ष आध्यात्मिक सुखों का प्रतिनिधित्व करते हैं, मोक्ष मानव जीवन का परम लक्ष्य है जिनकी प्राप्ति में शेष पुरुषार्थ सहायक हैं ।
मोक्ष की प्राप्ति सभी के लिए संभव नहीं है अतः कालांतर में तीन पुरुषार्थ धर्म ,अर्थ तथा काम के ही पालन पर बल दिया गया है।

 इसे त्रिवर्ग कहा गया है जिसकी प्राप्ति सभी गृहस्थ के लिए सरल है। हिंदू शास्त्र वेदों का यह मत है कि तीनों पुरुषार्थ में कोई विरोध नहीं है तथा इनका पालन एक साथ हो सकता है मानव जीवन का पूर्ण विकास तभी संभव है जब कि सभी पुरुषों में सम्यक रूप से पालन किया जाए।





 धर्म -

पुरुषार्थओं में धर्म का सर्वप्रथम स्थान है जिसे हिंदू जीवन दर्शन में सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया है धर्म शब्द मूल धृ धातु से निष्पन्न होता है। जिसका शाब्दिक अर्थ होता है धारण करना अथवा अस्तित्व बनाए रखना।
 यह वह तत्व है जो मनुष्य तथा समाज के अस्तित्व को कायम रखता है । यह सामाजिक व्यवस्था को नियमित करता है ।प्राचीन शास्त्रों में इसकी विशद व्याख्या मिलती है महाभारत में कहा गया है कि धर्म सभी प्राणियों की रक्षा करता है सभी को सुरक्षित रखता है ।यह सृष्टि का अस्तित्व बनाए रखता है।


आगे बताया गया है कि धर्म की व्यवस्था सभी प्राणियों के कल्याण के लिए की गई है । जिससे सभी प्राणियों का हित होता है वही धर्म है। वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि जिससे लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण की सिद्धि होती है वही धर्म है।
 प्राचीन साहित्य में आचार को ही धर्म का लक्षण बताया गया है।  मनुस्मृति में धर्म के चार स्रोत कहे गए हैं वेद, स्मृति सदाचार ,आत्म तुष्टि अर्थात जो अपनी आत्मा को प्रिय लगे ।

प्राचीन शास्त्र कारों ने वेद, स्मृति आदि धर्म ग्रंथों में जो कर्तव्य विहित हैं उनके निष्ठा पूर्वक पालन को ही धर्म बताया है ।
वस्तुतः धर्म से तात्पर्य आचरण की उस संहिता से है जिसके माध्यम से मनुष्य नियमित होता हुआ विकास करता है और अंततोगत्वा परम पद मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है।

धर्म से संबंधित प्राचीन ग्रंथों में जो विचार व्यक्त किए गए हैं उन्हें देखने से स्पष्ट है कि यह एक व्यापक शब्द था जिसे भारतीय मनीषा ने सदाचार , सामाजिक कर्तव्य, व्यक्तिगत गुणों आदि का समावेश कर लिया था। अंग्रेजी का Religion   शब्द से पुरुषार्थ वाले धर्म  का पर्याय नहीं हो सकता।  धर्म व्यक्ति को नियंत्रित करता है तथा समाज के प्रति उसके कर्तव्यों को निष्ठा पूर्वक पालन करने के लिए प्रोत्साहित करता है । इसके माध्यम से व्यक्ति अपना सर्वांगीण विकास करता है । समाज के सदस्य के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करता है और अन्तोगत्वा अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति करता है ।धर्म को कहीं-कहीं कर्तव्यों का संग्रह भी माना गया है।



अर्थ - 

वर्तमान समय में इस शब्द का संकुचित रूप में धन अथवा संपत्ति से अर्थ लगाया जाता है। किंतु प्राचीन भारतीयों की दृष्टि में यह एक व्यापक शब्द था जिससे तात्पर्य उन समस्त आवश्यकताओं और साधनों से था जिसके माध्यम से मनुष्य भौतिक सुखों एवं ऐश्वर्य धन शक्ति आज को प्राप्त करता है।

इसकी परिधि में वार्ता तथा राजनीति को भी समाहित कर लिया गया था ,कृषि पशुपालन तथा वाणिज्य, वार्ता के क्षेत्र हैं ।राजनीति का संबंध है राज्य शासन से है । अर्थ के माध्यम से व्यक्ति भौतिक सुख एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति करता है  यह सुख सुविधा का साधन है।  प्राचीन शास्त्रों में अर्थ की महत्ता को स्वीकार किया गया है। महाभारत में इसे परम धर्म भी कहा गया है जिस पर सभी वस्तुएं निर्भर करती हैं जिसके पास अर्थ नहीं है वह मृतक के तुल्य हैं । जबकि धनी व्यक्ति संसार में सुख पूर्वक निवास करते हैं अर्थ के अभाव में जीवन यापन असंभव है।  बृहस्पति ने अर्थ को जगत का मूल स्वीकार किया है।  अर्थशास्त्र में इसे प्रधान तत्व निरूपित किया गया है ।नीतिशतक में विवृत है कि जिसके पास धन है वही कुलीन है , वही पंडित है और वेदों का ज्ञाता भी वही है , गुणवान भी वही है,  वक्ता भी वही है और दर्शनीय भी वही है ,सभी गुण धन में ही होते हैं।  किंतु धन की महत्व स्वीकार करते हुए भी हिंदू शास्त्र कारों ने अर्थ को धर्म के आधीन बताया है तथा धर्म पूर्वक धन की प्राप्ति पल-पल दिया है , जो अर्थ, धर्म की हानि करता है वह अभीष्ट नहीं है । मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म विरुद्ध अर्थ तथा काम का त्याग कर देना चाहिए।






काम - 

मानव जीवन का तृतीय पुरुषार्थ काम है  तथा इसका शाब्दिक अर्थ इंद्रिय सुख अथवा वासना से है । किंतु व्यापक अर्थ में इस शब्द से तात्पर्य मनुष्य की सहज इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों से है । महाभारत के अनुसार काम मन तथा हृदय का वह सुख है, जो इंद्रियों के विषयों से संयुक्त होने पर निःसृत होता है । यह संसार की प्रथम एवं प्रमुख प्रवृत्ति है । इसी के वशीभूत ही मनुष्य संतानोत्पत्ति करता है । गृहस्थ जीवन के विविध आनंदो का उपभोग करता है तथा दूसरे के प्रति आकर्षण रखता है।

हिंदू शास्त्र कारों ने मानव जीवन में काम के महत्व को स्वीकार करते हुए उस पर धर्म का अंकुश लगाया है तथा यह प्रतिपादित किया है कि धर्म संगत काम का आचरण ही व्यक्ति एवं समाज की उन्नति कर सकता है। इसके विपरीत होने पर मनुष्य के अतः पतन का मार्ग प्रशस्त करता है  । काम के निरंकुश आचरण से व्यक्ति का विकास अवरुद्ध हो जाता है ।काम की तृप्ति ना होने पर क्रोध तथा क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है , मोह से स्मृतिभ्रम , स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश तथा बुद्धि नाश से मनुष्य का पूर्ण विनाश हो जाता है। इसी कारण कृष्ण अपने सभी प्राणियों में धर्म युक्त काम की बात करते हैं । मत्स्य पुराण में कहा गया है कि धर्म रहित काम बंध्या पुत्र के समान है।  महाभारत की मान्यता है कि व्यक्ति धर्म विहीन काम का अनुसरण करता है वह अपनी बुद्धि को समाप्त कर देता है तथा कठिनाइयों में शत्रु द्वारा हंसी का पात्र बन जाता है।

मोक्ष - 
हिंदू विचारधारा में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है जिसकी प्राप्ति सभी का परम लक्ष्य है । चार्वाक के अतिरिक्त अन्य सभी विचारधाराएं इसे स्वीकार करती है। मोक्ष का अर्थ है पुनर्जन्म अथवा आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना । आत्मा अजर ,अमर एवं परमात्मा का ही अंश है।  शरीर बंधन का कारण है। संसार माया जाल है। मनुष्य जब इस तथ्य को जान लेता है तो वह सांसारिक विषयों से अपना ध्यान हटाकर परमात्मा की ओर लगाता है । ज्ञान, भक्ति और कर्म मोक्ष की प्राप्ति के साधन है । गीता में भी इसका उल्लेख मिलता है।

प्रायः सभी भारतीय दर्शन अविज्ञा तथा अज्ञान को ही बंधन का कारण मानते हैं तथा मोक्ष तभी संभव है जब व्यक्ति अज्ञान के बंधन को काट दे । गीता में कहा गया है कि काम क्रोध से रहित, जीते हुए मन वाले ज्ञानी पुरुष परमात्मा की प्राप्ति करते हैं । इंद्रिय मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति को मोक्ष स्वमेव प्राप्त हो जाता है । गीता ज्ञान के स्थान पर भक्ति को प्रधानता देता है तथा मोक्ष के लिए ईश्वर की कृपा को आवश्यक बताता है।  कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा।  जैन तथा बौद्ध धर्म भी अविज्ञा के विनाश को ही मोक्ष का उपाय मानते हैं इसके लिए त्रिरत्नों एवं बौद्ध अष्टांगिक मार्ग का विधान प्रस्तुत करते हैं।

मनुस्मृति में विहित है कि  इंद्रिय विरोधी राग द्वेष रहित तथा अहिंसा परायण व्यक्ति को ही मोक्ष प्राप्ति करता है।





Sunday, July 14, 2019

कुछ मिथक जिनको हम सच मानते आ रहे हैं

आज हम कुछ ऐसे मिथको की बात करेंगे जो हमको बिल्कुल सही और तर्क संगत लगती है , क्योकि हम बचपन से यही सुनते और समझते आ रहे हैं।

1. गिर‍गिट जिस  जगह पर होता है उसी हिसाब से रंग बदल लेता है. लेकिन सच तो ये है कि गिरगिट तापमान और मूड के हिसाब से रंग बदलता है. राजस्थान में लोग गिरगिट के गर्दन को लाल होने पर बारिश का पूर्वनुमान मानते हैं,
जो कि 80 % तक सही भी आंका गया है।



2. हमारे शरीर में पांच इंद्रियां होती हैं, लेकिन आपको मालूम है हमारे शरीर में 21 इंद्रियां होती है. जिनमें पांच इंद्रियां मुख्‍य होती है.


3.चीन की दीवार चांद से दिखाई देती है, लेकिन ऐसा नहीं है, एस्‍ट्रोनॉट बताते हैं कि चंद्रमा से पृथ्‍वी पर देखने पर सफेद और नीले मार्बल दिखाई देते हैं.
4. पृथ्‍वी, सूरज और सभी ग्रह सोलर सिस्‍टम के चक्‍कर लगाते हैं, न कि सूरज के चक्‍कर लगाते हैं.
5. साइंटिफिक तौर पर यह बात प्रूफ हो चुकी है कि हमारी जीभ के अलग-अलग हिस्‍से में सेंसेशन होती है. कोई हिस्‍सा ज्‍यादा सेंसेटिव होता है तो कोई कम.
6. बच्‍चों को शुगर की मात्रा ज्‍यादा देने की वजह से बच्‍चे हाईपर बन जाते हैं. लेकिन यह सिर्फ एक मिथ है.
7. हमारे शरीर में पांच इंद्रियां होती हैं, लेकिन आपको मालूम है हमारे शरीर में 21 इंद्रियां होती है. जिनमें पांच इंद्रियां मुख्‍य होती है.
8. ठंड लगने पर अपने खाने में विटामिन सी की मात्रा को बढ़ा दें, इससे आपको काफी राहत मिलेगी, यह बात रिसर्च में साबित हो गई है.
10. हम अपने दिमाग का 10 प्रतिशत हिस्‍सा ही प्रयोग में ला पाते हैं, ये तथ्‍य पूरी तरह से एक मिथ है. सच तो यह है कि इंसान का दिमाग हर समय एक्टिव होता है और इसके सभी हिस्‍से यूज होत हैं.
11. मरने के बाद भी हमारे बाल और नाखून बढ़ते हैं, यह सिर्फ एक दिमागी वहम है. शरीर का कोई भी हिस्‍सा मरने के बाद क‍ाम नहीं करता है.

Thursday, June 13, 2019

सरस्वती सम्मान किस क्षेत्र में दिया जाता है ?

यह सम्मान प्रतिवर्ष संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज भाषाओं की में प्रकाशित उत्कृष्ट साहित्यिक कृति को दिया जाता है। यह कृति सम्मान वर्ष से पहले दस वर्ष की अवधि में प्रकाशित होने वाली कोई पुस्तक ही हो सकती है। इस सम्मान में शाल, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिह्न और 15 लाख रुपये की सम्मान राशि दी जाती है।


10 अप्रैल, 2019 को प्रसिद्ध तेलुगू कवि डॉ.के. शिवा रेड्डी को वर्ष 2018 के 28वें सरस्वती सम्मान के लिए चुना गया।
उन्हें यह सम्मान उनके काव्य संग्रह ‘पक्की ओत्तिगिलिते’ (Pakki Ottigilite) के लिए दिया जाएगा।
इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2016 में हुआ था।
इससे पूर्व 27वां सरस्वती सम्मान, 2017 प्रसिद्ध गुजराती कवि सीतांशु यशसचंद्र को उनके काव्य संग्रह ‘वखार’ के लिए प्रदान किया गया था।
ज्ञातव्य है कि वर्ष 1991 में के.के. बिड़ला फाउंडेशन द्वारा सरस्वती सम्मान की स्थापना की गई थी।

Wednesday, June 12, 2019

नमस्ते और नमस्कार में अंतर कब क्या बोलना चाहिए ?

नमस्कार का संधि विच्छेद करें तो होता है नमः + कार |
अर्थात नमन करता हूँ |
वहीँ नमस्ते का संधि विच्छेद होता है नमः + ते |
अर्थात नमन है आपको |

दोनो के ही अर्थ समान ही है किंतु दोनो में अंतर होता है।

नमस्कार किसी भी समूह या समुदाय को नमन करने के लिए प्रयोग किया जाता है।
नमस्ते शब्द का प्रयोग किसी व्यक्ति विशेष को नमन करने के लिए बोला जाता है।





नमस्कार के मुख्यत: तीन प्रकार हैं:- सामान्य नमस्कार, पद नमस्कार और साष्टांग नमस्कार।

सामान्य नमस्कार : किसी से मिलते वक्त सामान्य तौर पर दोनों हाथों की हथेलियों को जोड़कर नमस्कार किया जाता है। प्रतिदिन हमसे कोई न कोई मिलता ही है, जो हमें नमस्कार करता है या हम उसे नमस्कार करते हैं।

पद नमस्कार : इस नमस्कार के अंतर्गत हम अपने परिवार और कुटुम्ब के बुजुर्गों, माता-पिता आदि के पैर छूकर नमस्कार करते हैं। परिवार के अलावा हम अपने गुरु और आध्यात्मिक ज्ञान से संपन्न व्यक्ति के पैर छूते हैं।

साष्टांग नमस्कार : यह नमस्कार सिर्फ मंदिर में ही किया जाता है। षड्रिपु, मन और बुद्धि, इन आठों अंगों से ईश्वर की शरण में जाना अर्थात साष्टांग नमन करना ही साष्टांग नमस्कार है।



नमस्कार के लाभ : अच्छी भावना और तरीके से किए गए नमस्कार का प्रथम लाभ यह है कि इससे मन में निर्मलता बढ़ती है। निर्मलता से सकारात्मकता का विकास होता है। अच्छे से नमस्कार करने से दूसरे के मन में आपके प्रति अच्छे भावों का विकास होता है।

इस तरह नस्कार का आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों ही तरह का लाभ मिलता है। इससे जहां दूसरों के प्रति मन में नम्रता बढ़ती है वहीं मंदिर में नमस्कार करने से व्यक्ति के भीतर शरणागत और कृतज्ञता के भाव का विकास होता है। इससे मन और मस्तिष्क शांत होता है और शीघ्र ही आध्यात्मिक सफलता मिलती है।

Wednesday, June 5, 2019

ख्यात , विख्यात , सुविख्यात , कुख्यात और प्रख्यात का अर्थ एवं उनमे अंतर

ख्यात , विख्यात , सुविख्यात और प्रख्यात का अर्थ होता है प्रसिद्धि।
इन शब्दों के अर्थ में बहुत ही कम अंतर है अतः हम किसी भी शब्द का प्रयोग कंही भी कर देते हैं , आइये जानते हैं इनमे अंतर


ख्यात - इसका अर्थ होता है प्रसिद्ध होना , यह शब्द यह नही बताता कि अमुक के विषय मे जो प्रसिद्धि है वह अच्छे कार्य के लिए है अथवा बुरे कार्य के लिए ,।


विख्यात - यह ख्यात शब्द का ही अर्थ व्यक्त करता है किन्तु यह प्रसिद्धि  अधिक होने के बारे में बताता है,  यह भी अच्छी या बुरी स्थिति को व्यक्त नही करता।

कुख्यात - इसका अर्थ भी प्रसिद्ध होना होता है , किन्तु यह स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है , कि वह बुरे कार्य के लिए प्रसिद्ध है।

प्रख्यात - इसका अर्थ भी प्रसिद्ध होना ही होता है , किन्तु यह प्रसिद्धि के क्षेत्र होने के बारे में बताता है ।

Tuesday, June 4, 2019

अटल पेंशन योजना

अटल पेंशन योजना भारत के नागरिकों के लिए जो असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों का कार्य कर रहे हैं पर केंद्रित एक पेंशन योजना है। इसके तहत, 60 साल की उम्र में 1,000/- या 2,000/- या 3000/- या 4000 या 5000/- प्रति माह रुपये की न्यूनतम पेंशन की गारंटी ग्राहकों द्वारा योगदान के आधार पर दिया जाएगा। भारत का कोई भी नागरिक एपीवाई योजना शामिल हो सकता हैं। इसके निम्नलिखित पात्रता मानदंड हैं:

ग्राहक की उम्र 18 से 40 साल के बीच होनी चाहिए
उसका एक बचत बैंक खाता डाकघर/बचत बैंक में होना चाहिए
भावी आवेदक एपीवाई अकाउंट में समय-समय पर अपडेट की प्राप्ति की सुविधा के लिए पंजीकरण के दौरान बैंक को आधार और मोबाइल नंबर उपलब्ध करा सकता है। हालांकि, आधार कार्ड नामांकन के लिए अनिवार्य नहीं है।

पेंशन योजना की आवश्यकता -

यह पेंशन लोगों को एक मासिक आय प्रदान करता है जब वे कमाई नही कर रहे होते हैं।( 60  वर्ष की आयु प्राप्त करने के बाद )

उम्र के साथ संभावित कमाई आय में कमी
परमाणु परिवार का उदय - कमाउ सदस्य का पलायन
जीवन यापन की लागत में वृद्धि
दीर्घायु में वृद्धि
निश्चित मासिक आय बुढ़ापे में सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करता है


एपीवाई के लाभ

अटल पेंशन योजना के तहत न्यूनतम पेंशन की इस अर्थ में सरकार द्वारा की गारंटी होगी कि यदि पेंशन योगदान पर वास्तविक रिटर्न अंशदान की अवधि के दौरान कम हुआ तो इस तरह की कमी को सरकार द्वारा वित्त पोषित किया जाएगा। अर्थात यदि आपके द्वारा जमा की गई राशि और उसपर मिलने वाले रिटर्न आपके दी जाने वाली पेंशन से कम होती है तो पेंशन का भारवहन सरकार करेगी। दूसरी ओर, यदि पेंशन योगदान पर वास्तविक रिटर्न न्यूनतम गारंटी पेंशन के लिए योगदान की अवधि में रिटर्न की तुलना में अधिक हैं तो इस तरह के अतिरिक्त लाभ ग्राहक के खाते में जमा किया जायेगा जिससे ग्राहकों को बढ़ा हुआ योजना लाभ मिलेगा।

सरकार कुल योगदान का 50% या 1000 रुपये प्रति साल जो भी कम हो का सह-योगदान प्रत्येक पात्र ग्राहक को करेगी ( आपके द्वारा वर्ष में जमा की गई राशि का 50% सरकार देगी किन्तु आपके द्वारा जमा की गई राशि का 50% 1000 से ऊपर होता है तो सरकार केवल 1000 रुपये योगदान देगी )
 जो इस योजना में 1 जून 2015 से 31 मार्च 2016 के बीच शामिल होते हैं और जो किसी भी अन्य सामाजिक सुरक्षा योजना के एक लाभार्थी नहीं है एवं आयकर दाता नहीं है। सरकार के सह-योगदान वित्तीय वर्ष 2015-16 से 2019-20 तक 5 साल के लिए दिया जाएगा।

वर्तमान में, नेशनल पेंशन सिस्टम (एनपीएस) के तहत ग्राहक योगदान एवं उसपर निवेश रिटर्न के लिए के लिए कर लाभ पाने के पात्र है। इसके अलावा, एनपीएस से बाहर निकलने पर वार्षिकी की खरीद मूल्य पर भी कर नहीं लगाया जाता है और केवल ग्राहकों की पेंशन आय सामान्य आय का हिस्सा मानी जाती है उसपर ग्राहक के लिए लागू उचित सीमांत दर लगाया जाता है। इसी तरह के कर उपचार एपीवाई के ग्राहकों के लिए लागू है।



योगदान की विधि, कैसे योगदान करें और योगदान की नियत तारीख

योगदान मासिक/तिमाही/छमाही अंतराल पर बचत बैंक खाता/ग्राहक के डाकघर बचत बैंक खाते से ऑटो डेबिट सुविधा के माध्यम से किया जा सकता है। मासिक/तिमाही/छमाही योगदान वांछित मासिक पेंशन और प्रवेश के समय ग्राहक की उम्र पर निर्भर करता है। एपीवाई के लिए योगदान , माह के किसी भी विशेष तारीख को बचत बैंक खाता/डाकघर बचत बैंक खाते के माध्यम से भुगतान किया जा सकता है, मासिक योगदान की दशा में पहले महीने के किसी भी दिन या तिमाही योगदान की दशा में तिमाही के पहले महीने के किसी भी दिन या अर्ध-वार्षिक योगदान के मामले में छमाही के पहले महीने के किसी भी दिन।


निरंतर चूक के मामले में

ग्राहकों को अपने बचत बैंक खातों/डाकघर बचत बैंक खाते में निर्धारित नियत दिनांक देरी योगदान के लिए किसी भी अतिदेय ब्याज से बचने के लिए पर्याप्त राशि रखनी चाहिए। मासिक/तिमाही/छमाही योगदान बचत बैंक खाता/डाकघर बचत बैंक खाते में महीने/तिमाही/छमाही की पहली तारीख को जमा किया जा सकता है। हालांकि, अगर ग्राहक के बचत बैंक खाते/डाकघर बचत बैंक खाते में पहले महीने के अंतिम दिन/पहले तिमाही के अंतिम दिन/ पहले छमाही के अंतिम अपर्याप्त शेष है तो इसे एक डिफ़ॉल्ट माना जायेगा

( आप अपनी सुविधा के अनुसार पेंशन के लिए राशि मासिक , तिमाही या छमाही के रूप में दे सकते हैं , तिमाही या छमाही में पहले महीने में ही राशि जमा करना होगा )

और देरी से योगदान के लिए अतिदेय ब्याज के साथ अगले महीने में भुगतान करना होगा। बैंकों को प्रत्येक देरी मासिक योगदान के लिए प्रत्येक 100 रुपये में देरी के 1 रुपये प्रति माह शुल्क लेना है। योगदान की तिमाही/छमाही मोड के लिए देरी योगदान के लिए अतिदेय ब्याज के हिसाब से वसूल किया जाएगा।

( यदि सम्भावित तिथि में  राशि जमा नही होगी तो 1% मासिक की दर से जुर्माना लगाया जाएगा जो कि आपके तिमाही या छमाही के प्लान के अनुसार लिया जाएगा)

एकत्र बकाया ब्याज की राशि ग्राहक के पेंशन कोष के हिस्से के रूप में रहेगा। एक से अधिक मासिक/तिमाही/छमाही योगदान धन की उपलब्धता के आधार पर लिया जा सकता है। सभी मामलों में, योगदान यदि कोई हो अतिदेय राशि के साथ-साथ जमा किया जा सकता है। यह बैंक की आंतरिक प्रक्रिया होगी। देय राशि की वसूली खाते में उपलब्ध धन के अनुसार की जाएगी।

रखरखाव शुल्क और अन्य संबंधित शुल्कों के लिए ग्राहकों के खाते से कटौती एक आवधिक आधार पर किया जाएगा। उन ग्राहकों के लिए जिन्होंनें सरकार के सह-योगदान का लाभ उठाया है के लिए, खाते की राशि शून्य माना जाएगा जब ग्राहक कोष एवं सरकार के सह-योगदान खाते से घटाने पर राशि रखरखाव शुल्क, फीस और अतिदेय ब्याज के बराबर हो जाये और इसलिए शुद्ध कोष शून्य हो जाता है । इस मामले में सरकार का सह अंशदान सरकार को वापस दिया जाएगा।
( यदि आपके द्वारा समय से राशि जमा नही किया जाएगा तो ऐसी स्थिति में खाते का रख रखाव शुल्क और विलम्ब का जुर्माना आपके द्वारा जमा की गई राशि के बराबर हो जाएगा तो सरकार द्वारा प्राप्त अंशदान जो कि 50% अथवा अधिकतम 1000₹ है , सरकार को वापस कर दी जाएगी)


पेंशन योजना से बाहर निकलना-

60 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर :- 60 वर्ष की समाप्ति पर ग्राहक संबंधित बैंक को गारंटी न्यूनतम मासिक पेंशन या अधिक मासिक पेंशन निकासी के लिए, अगर निवेश रिटर्न एपीवाई में एम्बेडेड गारंटीड रिटर्न की तुलना में अधिक हैं। मासिक पेंशन की समान राशि ग्राहक की मृत्यु पर पति या पत्नी (डिफ़ॉल्ट नामित) को देय है। नामांकित ग्राहक और पति या पत्नी दोनों की मौत पर 60 साल की उम्र तक संचित पेंशन धन की वापसी के लिए पात्र होंगे।


60 साल की उम्र के बाद किसी भी कारण की वजह से ग्राहक की मृत्यु के मामले में :- ग्राहक की मृत्यु के मामले में, वही पेंशन पति या पत्नी को देय है और दोनों की मृत्यु पर (ग्राहक और पति या पत्नी) 60 साल की उम्र तक संचित पेंशन धन नामांकित को वापस किया जायेगा।


60 साल की उम्र से पहले बाहर निकलना :- यदि एक ग्राहक, जिसने एपीवाई के तहत सरकार के सह-योगदान का लाभ उठाया है, भविष्य में स्वेच्छा से एपीवाई बाहर निकलने के लिए चुनता है तो उसे केवल एपीवाई में उनके द्वारा किया गया योगदान उनके योगदान पर अर्जित शुद्ध वास्तविक अर्जित आय के साथ-साथ खाते के रखरखाव शुल्क घटाने के बाद वापस किया जाएगा। सरकार के सह-योगदान है, और सरकार के सह-योगदान पर अर्जित आय, इस तरह के ग्राहकों के लिए वापस नहीं किया जाएगा।


60 साल की उम्र से पहले ग्राहक की मृत्यु :-
60 वर्ष से पहले ग्राहक की मृत्यु के मामले में, एपीवाई खाते में शेष अवधि के लिए जब तक मूल ग्राहक 60 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेता, निहित योगदान अपने नाम में जारी रखने का विकल्प पति या पत्नी के पास उपलब्ध होगा। ग्राहक का पति या पत्नी मृत्यु पर वही पेंशन राशि प्राप्त करने का हकदार होगा जो ग्राहक को देय था।
या, एपीवाई के तहत पूरे संचित कोष पति या पत्नी/नामिती को लौटा दी जाएगी।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

यह एपीवाई खाते में नामांकन विवरण प्रदान करना अनिवार्य है। यदि ग्राहक विवाहित है तो पति या पत्नी डिफ़ॉल्ट नामित होंगें। अविवाहित ग्राहक नामित के रूप में किसी भी अन्य व्यक्ति को मनोनीत कर सकते हैं पर शादी के बाद उन्हें पति या पत्नी की जानकारी प्रदान करनी होगी। पति या पत्नी और नामित के आधार की जानकारी प्रदान की जा सकती है।
एक ग्राहक केवल एक एपीवाई खाता खोल सकते हैं और यह अद्वितीय है। एकाधिक खातों की अनुमति नहीं है।
एक ग्राहक एक वर्ष के के दौरान एक बार पेंशन राशि को बढ़ाने या घटाने के लिए विकल्प चुन सकते हैं।
एपीवाई ग्राहकों को पीआरएएन की सक्रियता, खाते में शेष राशि, योगदान क्रेडिट आदि के बारे में एसएमएस अलर्ट के माध्यम से समय-समय पर जानकारी सूचित कर दी जायेगी। ग्राहक को साल में एक बार खाते का भौतिक विवरण भी दिया जाएगा।
एपीवाई का सालाना भौतिक विवरण भी ग्राहकों के लिए प्रदान किया जाएगा।
योगदान आवास/स्थान के परिवर्तन के मामले में भी ऑटो डेबिट के माध्यम से बिना रूकावट के प्रेषित किया जा सकता है।
योजना केवल भारतीय नागरिक के लिए ही है।
ग्राहक अप्रैल के महीने के दौरान एक वर्ष में एक बार ऑटो डेबिट सुविधा के मोड (मासिक/तिमाही/छमाही) को बदल सकते हैं।

सोनार ने कितने कितने ग्राम की अंगुठी बनायी ?

एक बार दामाद ने अपने ससुर को फ़ोन कर के कहा कि पिताजी मैं महीने के किसी भी तारीख को आऊंगा और मैं जिस तारीख को आऊंगा मुझे उतने ग्राम के सोने की अंगुठी   चाहिए।
 ससुर सोनार के पास गया और पूरी बात बताई और कहा कि मुझे एक से इकतीस ग्राम की सोने की अंगूठीबना दो 
 सोनार ने सारी बात सुन कर  सिर्फ पाँच अंगुठी बनाया और कहा ले जाओ किसी भी दिन आएगा काम चल जाएगा।
 सोनार ने कितने कितने ग्राम की अंगूठी बनाई ?




उत्तर - 1, 2, 4, 8, 16, ग्राम

Sunday, June 2, 2019

सीढ़ी के बल्ब की वायरिंग एवं क्रियाविधि

सीढ़ी के बल्ब में 2 way , की 2 स्विच लगती है , हम किसी भी स्विच से बल्ब को on या off कर सकते हैं।

यदि 1 way स्विच का प्रयोग किया जाय तो बल्ब जला कर हम ऊपर जा सकते हैं परन्तु बल्ब को बंद करने के लिए हमे नीचे आना पड़ेगा , ऐसे में बल्ब का कोई उपयोग नही रह जायेगा।


2 way स्विच वाले बल्ब को हम नीचे वाली स्विच से बल्ब on कर के ऊपर जा कर ऊपर वाले स्विच से बल्ब को off कर सकते हैं।


वायरिंग - 

2, टू वे स्विच लेते हैं , इनमे 3 पिन लगे होते हैं , दोनो स्विच के किनारे किनारे वाले पिनो को आपस मे जोड़ देते हैं तथा एक स्विच के बीच वाले पिन को बल्ब से जोड़ देते है तथा दूसरी स्विच के बीच वाले पिन को supply ( फेज तार ) से जोड़ देते हैं ,

बल्ब एक पिन को सप्लाई के न्यूट्रल में जोड़ देते हैं ।






क्रिया विधि - 





सीहोर यात्रा

 लोग कहते हैं जब भगवान की कृपा होती है तो बाबा बुला ही लेते है। बस ऐसा ही मेरे साथ हुआ। मैं बड़ी माँ के यहाँ गया था ( बड़ी माँ और मैं एक ही शह...