अन्नप्राशन के बाद आठवां संस्कार चूड़ाकर्म या चौल कर्म था। जिसमें पहली बार बालक के बाल काटे जाते थे। गृह्यसूत्रों के अनुसार जन्म के प्रथम वर्ष की समाप्ति अथवा तीसरे वर्ष की समाप्ति के पूर्व या संस्कार संपन्न किया जाना चाहिए । कुछ स्मृतिकार इसकी अवधि पांचवी तथा सातवें वर्ष तक रखते हैं आश्वलायन का विचार है कि चूड़ाकर्म तीसरे या पांचवें वर्ष में होना प्रशंसनीय है किंतु में सातवें वर्ष अथवा उपन्नयन के समय भी किया जा सकता है ।
कुछ शास्त्रों के अनुसार कुल तथा धर्म की रीत रिवाज के अनुसार इसे करना चाहिए पहले यह संस्कार की घर पर किया जाता था । बाद में मंदिर या देवता के सामने किया जाने लगा । इसके लिए एक शुभ दिन या मुहूर्त निश्चित किया जाता था ।प्रारंभ में संकल्प , गणेश पूजा , मंगल श्राद्ध आदि सम्पन्न होता था तथा ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता था । तब उपरांत माँ बच्चे को स्नान करवाकर नए वस्त्रों में लेकर यज्ञ अग्नि के पश्चिम की ओर बैठती थी और उसकी पूजा-अर्चना के बीच बच्चे का बाल काटा जाता था । कटे हुए बाल को गाय के गोबर में छिपा दिया जाता था । बालक के सिर पर मक्खन अथवा दही का लेप किया जाता था। बालो को गोबर में ढकने के पीछे यह धारणा थी कि बाल शरीर के अंग है अतः शत्रुओं द्वारा द्वारा जादू टोना के शिकार ना हो जाए। इसी कारण से उन्हें सबकी पहुंच से बाहर रखा जाता था। इस संस्कार के पीछे यह भावना भी थी कि बच्चे को स्वच्छता और सफाई का ज्ञान कराया जा सके जो कि स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
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