Thursday, July 25, 2019

पुरुषार्थ

हिंदू शास्त्र कारों ने मनुष्य तथा समाज की उन्नति के निमित्त जिन आदर्शों का विधान प्रस्तुत किया है उन्हें पुरुषार्थ की संज्ञा दी जाती है पुरुषार्थ का संबंध मनुष्य तथा समाज दोनों से है यह मनुष्य तथा समाज के बीच संबंधों की व्याख्या करते हैं उन्हें नियमित बनाते हैं तथा उनके पारस्परिक संबंधों को नियंत्रित भी करते हैं

पुरुषार्थ का उद्देश्य मनुष्य की भौतिक तथा आध्यात्मिक सुखों के बीच सामंजस्य स्थापित करना है भारतीय परंपरा भौतिक सुखों को क्षणिक मानते हुए भी उन्हें पूर्णतया त्यागने हेतु नहीं समझती हैं बल्कि उनके प्रति अतिशय आसक्ति का ही विरोध करती हैं मनुष्य भौतिक सुखों के संयमित उपभोग द्वारा ही आध्यात्मिक सुख प्राप्त करता है।

भौतिक सुखों को आध्यात्मिक सुखों की प्राप्ति में साधक माना गया है बाधक नहीं दोनो घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं दोनों का संबंध में स्वरूप पुरुषार्थ ओं के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है। पुरुषार्थ का संक्षेप में अर्थ होता है कि मनुष्य को क्या प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।

पुरुषार्थ चार है
1 धर्म
2 अर्थ
3 काम
4 मोक्ष

इनमें अर्थ तथा काम भौतिक सुखों के प्रतिनिधि हैं जबकि धर्म तथा मोक्ष आध्यात्मिक सुखों का प्रतिनिधित्व करते हैं, मोक्ष मानव जीवन का परम लक्ष्य है जिनकी प्राप्ति में शेष पुरुषार्थ सहायक हैं ।
मोक्ष की प्राप्ति सभी के लिए संभव नहीं है अतः कालांतर में तीन पुरुषार्थ धर्म ,अर्थ तथा काम के ही पालन पर बल दिया गया है।

 इसे त्रिवर्ग कहा गया है जिसकी प्राप्ति सभी गृहस्थ के लिए सरल है। हिंदू शास्त्र वेदों का यह मत है कि तीनों पुरुषार्थ में कोई विरोध नहीं है तथा इनका पालन एक साथ हो सकता है मानव जीवन का पूर्ण विकास तभी संभव है जब कि सभी पुरुषों में सम्यक रूप से पालन किया जाए।





 धर्म -

पुरुषार्थओं में धर्म का सर्वप्रथम स्थान है जिसे हिंदू जीवन दर्शन में सर्वाधिक महत्व प्रदान किया गया है धर्म शब्द मूल धृ धातु से निष्पन्न होता है। जिसका शाब्दिक अर्थ होता है धारण करना अथवा अस्तित्व बनाए रखना।
 यह वह तत्व है जो मनुष्य तथा समाज के अस्तित्व को कायम रखता है । यह सामाजिक व्यवस्था को नियमित करता है ।प्राचीन शास्त्रों में इसकी विशद व्याख्या मिलती है महाभारत में कहा गया है कि धर्म सभी प्राणियों की रक्षा करता है सभी को सुरक्षित रखता है ।यह सृष्टि का अस्तित्व बनाए रखता है।


आगे बताया गया है कि धर्म की व्यवस्था सभी प्राणियों के कल्याण के लिए की गई है । जिससे सभी प्राणियों का हित होता है वही धर्म है। वैशेषिक दर्शन में कहा गया है कि जिससे लौकिक तथा पारलौकिक कल्याण की सिद्धि होती है वही धर्म है।
 प्राचीन साहित्य में आचार को ही धर्म का लक्षण बताया गया है।  मनुस्मृति में धर्म के चार स्रोत कहे गए हैं वेद, स्मृति सदाचार ,आत्म तुष्टि अर्थात जो अपनी आत्मा को प्रिय लगे ।

प्राचीन शास्त्र कारों ने वेद, स्मृति आदि धर्म ग्रंथों में जो कर्तव्य विहित हैं उनके निष्ठा पूर्वक पालन को ही धर्म बताया है ।
वस्तुतः धर्म से तात्पर्य आचरण की उस संहिता से है जिसके माध्यम से मनुष्य नियमित होता हुआ विकास करता है और अंततोगत्वा परम पद मोक्ष की प्राप्ति कर लेता है।

धर्म से संबंधित प्राचीन ग्रंथों में जो विचार व्यक्त किए गए हैं उन्हें देखने से स्पष्ट है कि यह एक व्यापक शब्द था जिसे भारतीय मनीषा ने सदाचार , सामाजिक कर्तव्य, व्यक्तिगत गुणों आदि का समावेश कर लिया था। अंग्रेजी का Religion   शब्द से पुरुषार्थ वाले धर्म  का पर्याय नहीं हो सकता।  धर्म व्यक्ति को नियंत्रित करता है तथा समाज के प्रति उसके कर्तव्यों को निष्ठा पूर्वक पालन करने के लिए प्रोत्साहित करता है । इसके माध्यम से व्यक्ति अपना सर्वांगीण विकास करता है । समाज के सदस्य के रूप में अपने दायित्वों का निर्वाह करता है और अन्तोगत्वा अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति करता है ।धर्म को कहीं-कहीं कर्तव्यों का संग्रह भी माना गया है।



अर्थ - 

वर्तमान समय में इस शब्द का संकुचित रूप में धन अथवा संपत्ति से अर्थ लगाया जाता है। किंतु प्राचीन भारतीयों की दृष्टि में यह एक व्यापक शब्द था जिससे तात्पर्य उन समस्त आवश्यकताओं और साधनों से था जिसके माध्यम से मनुष्य भौतिक सुखों एवं ऐश्वर्य धन शक्ति आज को प्राप्त करता है।

इसकी परिधि में वार्ता तथा राजनीति को भी समाहित कर लिया गया था ,कृषि पशुपालन तथा वाणिज्य, वार्ता के क्षेत्र हैं ।राजनीति का संबंध है राज्य शासन से है । अर्थ के माध्यम से व्यक्ति भौतिक सुख एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति करता है  यह सुख सुविधा का साधन है।  प्राचीन शास्त्रों में अर्थ की महत्ता को स्वीकार किया गया है। महाभारत में इसे परम धर्म भी कहा गया है जिस पर सभी वस्तुएं निर्भर करती हैं जिसके पास अर्थ नहीं है वह मृतक के तुल्य हैं । जबकि धनी व्यक्ति संसार में सुख पूर्वक निवास करते हैं अर्थ के अभाव में जीवन यापन असंभव है।  बृहस्पति ने अर्थ को जगत का मूल स्वीकार किया है।  अर्थशास्त्र में इसे प्रधान तत्व निरूपित किया गया है ।नीतिशतक में विवृत है कि जिसके पास धन है वही कुलीन है , वही पंडित है और वेदों का ज्ञाता भी वही है , गुणवान भी वही है,  वक्ता भी वही है और दर्शनीय भी वही है ,सभी गुण धन में ही होते हैं।  किंतु धन की महत्व स्वीकार करते हुए भी हिंदू शास्त्र कारों ने अर्थ को धर्म के आधीन बताया है तथा धर्म पूर्वक धन की प्राप्ति पल-पल दिया है , जो अर्थ, धर्म की हानि करता है वह अभीष्ट नहीं है । मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म विरुद्ध अर्थ तथा काम का त्याग कर देना चाहिए।






काम - 

मानव जीवन का तृतीय पुरुषार्थ काम है  तथा इसका शाब्दिक अर्थ इंद्रिय सुख अथवा वासना से है । किंतु व्यापक अर्थ में इस शब्द से तात्पर्य मनुष्य की सहज इच्छाओं एवं प्रवृत्तियों से है । महाभारत के अनुसार काम मन तथा हृदय का वह सुख है, जो इंद्रियों के विषयों से संयुक्त होने पर निःसृत होता है । यह संसार की प्रथम एवं प्रमुख प्रवृत्ति है । इसी के वशीभूत ही मनुष्य संतानोत्पत्ति करता है । गृहस्थ जीवन के विविध आनंदो का उपभोग करता है तथा दूसरे के प्रति आकर्षण रखता है।

हिंदू शास्त्र कारों ने मानव जीवन में काम के महत्व को स्वीकार करते हुए उस पर धर्म का अंकुश लगाया है तथा यह प्रतिपादित किया है कि धर्म संगत काम का आचरण ही व्यक्ति एवं समाज की उन्नति कर सकता है। इसके विपरीत होने पर मनुष्य के अतः पतन का मार्ग प्रशस्त करता है  । काम के निरंकुश आचरण से व्यक्ति का विकास अवरुद्ध हो जाता है ।काम की तृप्ति ना होने पर क्रोध तथा क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है , मोह से स्मृतिभ्रम , स्मृतिभ्रम से बुद्धिनाश तथा बुद्धि नाश से मनुष्य का पूर्ण विनाश हो जाता है। इसी कारण कृष्ण अपने सभी प्राणियों में धर्म युक्त काम की बात करते हैं । मत्स्य पुराण में कहा गया है कि धर्म रहित काम बंध्या पुत्र के समान है।  महाभारत की मान्यता है कि व्यक्ति धर्म विहीन काम का अनुसरण करता है वह अपनी बुद्धि को समाप्त कर देता है तथा कठिनाइयों में शत्रु द्वारा हंसी का पात्र बन जाता है।

मोक्ष - 
हिंदू विचारधारा में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य स्वीकार किया गया है जिसकी प्राप्ति सभी का परम लक्ष्य है । चार्वाक के अतिरिक्त अन्य सभी विचारधाराएं इसे स्वीकार करती है। मोक्ष का अर्थ है पुनर्जन्म अथवा आवागमन चक्र से मुक्ति प्राप्त कर आत्मा का परमात्मा में विलीन हो जाना । आत्मा अजर ,अमर एवं परमात्मा का ही अंश है।  शरीर बंधन का कारण है। संसार माया जाल है। मनुष्य जब इस तथ्य को जान लेता है तो वह सांसारिक विषयों से अपना ध्यान हटाकर परमात्मा की ओर लगाता है । ज्ञान, भक्ति और कर्म मोक्ष की प्राप्ति के साधन है । गीता में भी इसका उल्लेख मिलता है।

प्रायः सभी भारतीय दर्शन अविज्ञा तथा अज्ञान को ही बंधन का कारण मानते हैं तथा मोक्ष तभी संभव है जब व्यक्ति अज्ञान के बंधन को काट दे । गीता में कहा गया है कि काम क्रोध से रहित, जीते हुए मन वाले ज्ञानी पुरुष परमात्मा की प्राप्ति करते हैं । इंद्रिय मन तथा बुद्धि पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति को मोक्ष स्वमेव प्राप्त हो जाता है । गीता ज्ञान के स्थान पर भक्ति को प्रधानता देता है तथा मोक्ष के लिए ईश्वर की कृपा को आवश्यक बताता है।  कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सभी धर्मों को छोड़कर केवल मेरी शरण में आओ मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा।  जैन तथा बौद्ध धर्म भी अविज्ञा के विनाश को ही मोक्ष का उपाय मानते हैं इसके लिए त्रिरत्नों एवं बौद्ध अष्टांगिक मार्ग का विधान प्रस्तुत करते हैं।

मनुस्मृति में विहित है कि  इंद्रिय विरोधी राग द्वेष रहित तथा अहिंसा परायण व्यक्ति को ही मोक्ष प्राप्ति करता है।





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