Thursday, July 25, 2019

संस्कार

हिंदू व्यवस्था में संस्कारों का विधान व्यक्ति के शरीर को परिष्कृत अथवा पवित्र बनाने के उद्देश्य किया गया ताकि वह व्यक्ति सामाजिक विकास के लिए उपयुक्त बन सके । सबर का विचार है कि संस्कार वह क्रिया है जिसके संपन्न होने पर कोई वस्तु किसी उद्देश्य के योग्य बनती है ।शुद्धता , पवित्रता धार्मिकता एवं आस्तिकता संस्कार की प्रमुख विशेषताएं हैं।

ऐसी मान्यता है कि मनुष्य जन्मना असंस्कृत होता है किंतु संस्कारों के माध्यम से वह सुसंस्कृत हो जाता है । इनसे उनमें अंतर्निहित शक्तियों का पूर्ण विकास हो पाता है तथा वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है। संस्कार व्यक्ति के जीवन में आने वाली बाधाओं का निवारण करते हैं तथा उनके लिए प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते हैं । इसके माध्यम से मनुष्य आध्यात्मिक विकास भी करता है । मनु के अनुसार अनुसार संस्कार शरीर को विशुद्ध करके उसे आत्मा का उपयुक्त स्थल बनाते हैं । इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास के लिए भारतीय संस्कृति में संस्कारों का विधान प्रस्तुत किया गया है।

संस्कार जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत संपन्न किए जाते हैं अधिकांश ग्रंथों में अंत्येष्टि का उल्लेख नहीं मिलता है । स्मृति ग्रंथों में संस्कारों का विवरण प्राप्त होता है इनकी संख्या 40 तथा गौतम धर्मसूत्र में 48 मिलती है । मनु में गर्भाधान एवं मृत्यु पर्यंत 13 संस्कारों का उल्लेख किया है। बाद में स्मृतियों में इनकी संख्या 16 स्वीकार की गई है जो आज भी प्रचलित है । संस्कार शब्द का उल्लेख वैदिक तथा ब्राह्मण साहित्य में नहीं मिलता है।


हिंदू समाज शास्त्रियों ने संस्कारों का विधान विभिन्न उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया । मुख्यतः हम इन्हें दो भागों में विभाजित कर सकते हैं (1) लोकप्रिय उद्देश्य तथा (2) सांस्कृतिक उद्देश्य


संस्कार के लोकप्रिय उद्देश्यों में तीन मुख्य हैं
1. अशुभ शक्तियों का निवारण
2. भौतिक समृद्धि की प्राप्ति
3. भावनाओं की अभिव्यक्ति


अशुभ शक्तियों का निवारण

प्राचीन हिंदुओं का विश्वास था कि जीवन में अशुभ एवं आसुरी शक्तियों का प्रभाव होता है जो अच्छा तथा बुरा दो प्रकार का फल देती हैं अतः उन्हें संस्कारों के माध्यम से उनके अच्छे प्रभाव को आकर्षित करने तथा बुरे प्रभावों को हटाने का प्रयास किया । जिससे मनुष्य का स्वास्थ्य एवं निर्विघ्नं विकास हो सके इस उद्देश्य से प्रेत आत्माओं एवं आसुरी शक्तियों को अन्न आहुति आदि द्वारा शांत किया जाता था । गर्भाधान, जन्म ,बचपन आदि के समय इस प्रकार की आहुतियां दी जाती थी । तथा कभी-कभी देवताओं के मंत्रों द्वारा आराधना की जाती थी ताकि वह आसुरी शक्तियों को निष्क्रिय कर सकें। गर्भाधान के समय विष्णु ,उपनयन के समय बृहस्पति ,विवाह के समय प्रजापति आदि स्तुति की जाती थी।







भौतिक समृद्धि की प्राप्ति -
संस्कारों का विधान भौतिक समृद्धि तथा पशुधन ,पुत्र ,दीर्घायु शक्ति ,बुद्धि, संपत्ति आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से भी किया जाता रहा है । ऐसी मान्यता थी कि प्रार्थना ओं के द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं को देवता तक पहुंचाता है तथा प्रत्युत्तर में देवता उसे भौतिक समृद्धि एवं वस्तुएं प्रदान करते हैं । संस्कारों का यह उद्देश्य आज भी हिंदुओं के मस्तिष्क में प्रबल रूप से विद्यमान है।



भावनाओं की अभिव्यक्ति -
संस्कारों के माध्यम से मनुष्य अपने हर्ष एवं दुख की भावना को प्रकट करता था ।पुत्र जन्म ,विवाह आदि के अवसर पर आनंद एवं उल्लास को व्यक्त किया जाता था।  बालक को जीवन में मिलने वाली प्रत्येक उपलब्धि पर उसके परिवार के लोग खुशी मनाते थे।  इसी प्रकार मृत्यु के अवसर पर शोक व्यक्त किया जाता था इस प्रकार संस्कार अभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम भी बनते थे।



सांस्कृतिक उद्देश्य -
हिंदू विचारको ने संस्कारों के पीछे उच्च आदर्शों का उद्देश्य भी रखा । मनुस्मृति में कहा गया है कि संस्कार व्यक्ति की अशुद्धियों का नाश करके उसके शरीर को पवित्र बनाते हैं ।ऐसी धारणा थी कि गर्भस्थ शिशु के शरीर में कुछ अशुद्धियां होती है जो जन्म के बाद संस्कारों के माध्यम से ही दूर की जा सकती हैं । मनुस्मृति में कहा गया है कि अध्ययन , व्रत , होम यज्ञ , पुत्र उत्पत्ति से शरीर शुद्ध हो  जाता है । यह भी मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति जन्मना शुद्ध होता है संस्कारों से द्विज कहा जाता है।  विद्या से विप्रत्व प्राप्त होता है।

सांस्कृतिक उद्देश्यों में तीन उद्देश प्रमुख है
1. नैतिक उद्देश्य
2. व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास
3. आध्यात्मिक प्रगति


नैतिक उद्देश्य -
संस्कारों के द्वारा मनुष्य के जीवन में नैतिक गुणों का समावेश होता है । गौतम ने 40 संस्कारों के साथ साथ 8 गुणों का भी उल्लेख किया है तथा व्यवस्था दी है कि संस्कारों के साथ इन गुणों का आचरण करने वाला व्यक्ति ही ब्रह्मा को प्राप्त करता है।  यह है - दया, सहिष्णुता,  ईर्ष्या ना करना , शुद्धता , शांति, सदाचरण तथा लोभ एवं लिप्सा का त्याग । प्रत्येक संस्कार के साथ कोई ना कोई नैतिक आचरण संयुक्त रहता था।



व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास -
संस्कारों के माध्यम से मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास होता था । जीवन के प्रत्येक चरण में संस्कार मार्गदर्शन का काम करते थे । उनकी व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि वे जीवन के प्रारंभ से ही व्यक्ति के चरित्र एवं आचरण पर अनुकूल प्रभाव डाल सके।  उपनयन आदि संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति को शिक्षित एवं सुसंस्कृत बनाना था। विवाह के माध्यम से वह पूर्ण गृहस्थ बन जाता था तथा देश और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निष्ठा पूर्वक निर्वाह करता था । वस्तुतः हिंदू चिंतकों ने संस्कारों को व्यक्ति के लिए अनिवार्य बनाकर उनके सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।


आध्यात्मिक प्रगति -
संस्कार व्यक्ति की भौतिक उन्नति के साथ साथ ही आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग भी प्रशस्त करते थे । सभी संस्कारों के साथ धार्मिक क्रियाएं सम्बध्द होती थी। इन्हें संपन्न करके मनुष्य भौतिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख भी प्राप्त करता था। उसे यहां अनुभूति होती थी कि जीवन की समस्त क्रियाएं आध्यात्मिक शक्ति को प्राप्त करने के लिए की जा रही हैं । संस्कारों के अभाव में हिंदू जीवन पूर्णतया भौतिक हो गया होता। प्राचीन हिंदुओं का विश्वास था कि संस्कारों के विधिवत पालन से ही भौतिक बाधाओं से बचा जा सकता है तथा भवसागर को पार किया जा सकता है।  इस प्रकार संस्कार मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक जीवन के बीच मध्यस्थता का कार्य करते थे। संस्कार हिंदू जीवन पद्धति का अभिन्न अंग था।

16 संस्कार निम्न प्रकार हैं
1. गर्भाधान
2. पुंसवन
3. सीमन्तोन्नयन
4. जातकर्म
5. नामकरण
7. अन्नप्राशन
8. चूड़ाकरण
9. कर्ण वेधन
10. विद्यारंभ
11. उपनयन
12. वेदारम्भ
13. केशान्त
14. समावर्तन
15. विवाह
16. अंत्येष्टि




 


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