Friday, July 26, 2019

गर्भाधान

गर्भाधान जीवन का प्रथम संस्कार है। जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी पत्नी के गर्भ में बीज स्थापित करता हैं। इस संस्कार का प्रचलन उत्तर वैदिक काल से हुआ । सूत्रों तथा स्मृति ग्रंथों में इसके लिए उपयुक्त समय एवं वातावरण का उल्लेख मिलता है ।इसके लिए आवश्यक है कि स्त्री रितु काल में हो। रितु काल के बाद की चौथी से सोलहवीं रात्रियां गर्भाधान के लिए उपयुक्त बताई गई हैं ।अधिकांश गृहसूत्रोंमें तथा स्मृतियों में चौथी रात्रि को शुद्ध माना गया है।  आठवीं , पन्द्रहवी , अठारहवीं एवं तीसरी रात्रि में गर्भाधान वर्जित था ।
सोलह रात्रियों  में प्रथम चार , ( पहली, दूसरी ,तीसरी ,और चौथी,)  ग्यारहवीं एवं तेरहवीं  निन्दित कही गई हैं । तथा शेष दस रात्रि को श्रेयस्कर बताया गया है।

 गर्भाधान के लिए रात्रि का समय ही उपयुक्त था दिन में यह कार्य वर्जित था।  प्रश्नोपनिषद में कहा गया है कि दिन में गर्भ धारण करने वाली स्त्री से अभागी दुर्बल एवं अल्प आयु वाली संतान उत्पन्न होती हैं।  किंतु जो व्यक्ति अपनी पत्नी से दूर विदेश में रहते थे उनके लिए इस नियम में छूट प्रदान की गई थी।

गर्भाधान के लिए रात्रि का अंतिम पहर भी अभीष्ट माना गया ।समरात्रियों में गर्भाधान होने पर पुत्र एवं विषम में कन्या उत्पन्न होती है ऐसी मान्यता थी।  प्राचीन काल में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी जिसके अंतर्गत स्त्री अपने पति की मृत्यु अथवा उनके नपुंसक होने पर उसके भाई अथवा संगोत्र व्यक्ति से संतानोत्पत्ति  के लिए  गर्भाधान करती थी । किंतु अधिकांश ग्रंथों में इसकी निंदा की गई है। मनु ने इसे पशु धर्म बताया है।





गर्भाधान प्रत्येक विवाहित पुरुष तथा स्त्री के लिए पवित्र एवं अनिवार्य संस्कार था। जिसका उद्देश्य स्वस्थ सुंदर एवं सुशील संतान प्राप्त करना था । पराशर ने यह व्यवस्था दी कि जो पुरुष स्वस्थ होने पर भी रितुकाल में अपनी पत्नी से समागम नहीं करता है वह बिना किसी संदेह के भ्रूण हत्या का भागी होता है। स्त्री के लिए भी अनिवार्य है कि वह रितुकाल में स्नान के बाद अपने पति के पास जाए । पाराशर के अनुसार ऐसा ना करने वाली स्त्री का दूसरा जन्म सुकरी ( सुअर) के रूप में होता है । गर्भाधान पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रथम संस्कार एवं महत्वपूर्ण संस्कार है। सामाजिक तथा धार्मिक दोनों ही दृष्टि से इसका महत्व था। वैदिक युग के लिए स्वस्थ एवं बलिष्ट संतान उत्पन्न करना प्रत्येक आर्य का कर्तव्य था ।निसंतान व्यक्ति आदर का पात्र नहीं था । ऐसी मान्यता था कि जिस पिता के जितने अधिक पुत्र होंगे वह स्वर्ग में उतनी अधिक सुख प्राप्त करेगा। पितृ ऋण से मुक्ति भी संतान उत्पन्न करने से मिलती है।

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