लोग कहते हैं जब भगवान की कृपा होती है तो बाबा बुला ही लेते है। बस ऐसा ही मेरे साथ हुआ।
मैं बड़ी माँ के यहाँ गया था ( बड़ी माँ और मैं एक ही शहर में अपने पैतृक गांव से लगभग 70 कोश दूर रहते हैं )
महीने दो महीने में आना जाना जरूर होता है। तो मैं बड़ी माँ के यहाँ गया हुआ था तो वहाँ बात चल रही थी कि सब लोग पण्डित प्रदीप मिश्रा जी का प्रवचन सुनने शिहोर मध्यप्रदेश जा रहे हैं। मुझे भी कहा गया तुम भी चलो।
दरअसल मुझे ऐसे कंही भी धार्मिक यात्रा करने में कोई बहुत उत्सुकता नही रहती। ऐसा नही है कि मैं नास्तिक हूँ , मेरी आस्था भगवान में सदा से ही रही है। परन्तु बाबा पण्डित इन सब लोगो मे आस्था कभी नही रही ।
उसका एक कारण ये भी रहा है कि कई बार लोगो के साथ धार्मिक स्थलों पर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ वहाँ का मेरा अनुभव बहुत अधिक अच्छा नही रहा। धर्मिक स्थलों को बिलकुल भिंडी बाजार बनाया जा चुका है , यहाँ इतना दो वहाँ इतना दो , तब भगवान की कृपा होगी।
मुझे बहुत अधिक तो नही पता क्योंकि मैं बहुत जगहों पर तो नही गया पर जहां भी गया कुछ ऐसा ही अनुभव रहा।
वैसे मुझसे पूछा तो गया शिहोर चलने के लिए , मेरी तरफ से कोई जबाब न होने पर भी , वहाँ मेरी हाँ दर्ज हुई और बिना मेरी सहमति के ही मैं उस समूह का हिस्सा हो चुका था जो शिहोर जा रहा था।
मोहल्ले के तो जाने वाले काफी लोग थे। ट्रेन की टिकट मिलना तो भगवान के मिलने से भी ज्यादा मुश्किल था। सब लोग अपनी अपनी व्यवस्था में समूह का आकार बदल के तीन तीन चार चार के कई ग्रुप बन गए।
बैरहाल 14 फरवरी को हमने अपनी टिकट बुक करने के लिए paytm का सहारा लिया । कानपुर से शिहोर के लिए कोई बस मिली नही, और हमको कोई आइडिया था नही कि वहाँ जाने के लिए कहाँ की टिकट लेना सही होगा।
बड़ी माँ ने एक लोग से बात की तो पता चला कि इन्दौर जाने वाली बस शिहोर से होकर गुजरती है।
अब हमारे ग्रुप में केवल 3 लोग बचे थे। मैं बड़ी माँ और उनकी एक पड़ोसन।
पहले तो हमने चेयरयान की 3 टिकट बुक करने को सोचा किन्तु सफर 10 से 12 घण्टे का था। ऐसा हम सोच रहे थे। इसलिए हमने स्लीपर की तीन टिकट बुक कर ली।
15 फरवरी को हमे निकलना था बस का निर्धारित समय साम के 4 बजे का था तो मैं 1 बजे ही बड़ी माँ के घर आ गया।
मुझे सफर में ज्यादा सामान ले जाना पसंद नही है तो मैने जरूरत से भी कम सामान एक छोटे से बैग में पैक कर लिया।
और हमारे यहाँ कि एक बहुत पुरानी परम्परा है आप बाहर कँही भी जाओ तो खाना घर से ही पैक होकर मिलता है। और इस बार तो हमको 5 दिन घर से बाहर रहना था।
तो खाने का सामान भी मेरे ही बैग में ठूंस दिया गया। ठूस दिये जाने से मेरा मतलब है कि बैग की क्षमता से कुछ ज्यादा ही सामान भर दिया गया ।
हम तीन लोगों के बीच मे चार बैग बन चुके थे और कम से कम दो बैग तो मुझे ही उठाना था । संस्कारी बालक की तरह।
दो तीन बार कॉल करने पर बगल वाली आंटी भी आ ही गयी और
हम लोग तीन बजे ही निकल गए क्योंकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट से हमको ट्रेवल एजेंसी तक पहुँचने में भी तीस से चालीस मिनट लगने ही थे।
घर से निकलते टाइम वही हुआ जो मुझे पहले ही पता था । मेरे हिस्से आये दो बैग वो भी सबसे भारी वाले।
मरता क्या न करता एक बैग पीठ पर और एक हाथ मे , जय श्रीराम बोल के निकल पड़ा मैं।
हमे गाड़ी दो बार बदलने पर गंतव्य तक पहुँचना था , दो बार का मतलब दो बार मुझे बैग उठा के थोड़ी दूर तो चलना ही पड़ता।
तो मेरे दुर्बल आलसी शरीर के मस्तिष्क से प्रबल आवाज आयी कि भाई टैक्सी बुक कर ले।
मैंने टैक्सी बुक करी और ये लोग पीछे ही रह गयी थी तो बोला भईया पीछे दो लोग और आ रही वहाँ से घुमा लो। ये लोग रास्ते मे मिले । अब इनके पास भी ये विचार करने का वक्त तो था नही की बुक करें या पब्लिक ट्रांसपोर्ट ले। क्योंकि अब तो बुक हो ही चुका था।
इन लोगो के बैठने के बाद, टैक्सी चली तो चैन की सांस और ठंडी बहती हवा जो केवल टैक्सी के चलने की वजह से लग रही थी, बहुत सुकून दे रही थी।
दिन ठंडी का ही था पर मुझे ठंडी में भी ठंडी हवा बड़ा सुकून देती है , वो अलग बात है कि रात में फिर मेरे माथे पर दर्द जरूर होता है।
हम लोग समय से पहले ही पहुंच गए थे। पन्द्रह बीस मिनट तक बैठ कर इधर उधर की बाते करने के बाद अचानक से टूँ टूँ की दो आवाज के साथ मोबाइल और मैसेज आया।
जिसमें बस का नम्बर , ड्राइवर का संपर्क सूत्र और एक लिंक थी जिसको क्लिक कर के हम बस की स्थिति जान सकते थे।
मेरे पास जिओ का फ्री नेट तो नही था पर लिंक क्लिक कर के देखा तो बस उन्नाव पंहुचने वाली थी।
बस पहुँची एक घण्टे लेट।
बस लेट हो या हम पहले पहुँचे हम तीनो लोगो में एक बात कॉमन थी। पहले पँहुचे थे तो ये था कि घर पर भी बैठे रहते वैसे यहाँ बैठे हैं। और जब बस लेट हो रही थी यो भी खुश थे कि सुबह पंहुचेंगे न कि रात में।
बस आयी हमने अपने सीट U10, U11, U12 पर अपना कब्जा बनाया। और बस वाले भईया को बोला कि हमको शिहोर जाना है।
भईया ने बोला ये बस शिहोर नही जाएगी आपको रास्ते मे उतर के भोपाल फिर भोपाल से शिहोर के लिए बस पकड़ना पड़ेगा।
एक तो हम पहले ही 150km का ज्यादा टिकट लेकर बैठे थे, ऊपर से अब 160km और अलग बस करना था।
अब वो वक्त आ गया था जब मुझे अनरवत बोलने वाली दो महिलाओं से गाली सुननी थी। लेकिन फिर जब गाली नही पड़ी तो याद आया । कि इन्दौर की बुकिंग के लिए तो हमने बोला ही नही था।
भगवान भोले नाथ पर मेरी आस्था अब बढ़ती ही जा रही थी। क्योंकि कोई किसी को भी नही कोस रहा था। हमारे यहाँ रिवाज है जब गलती किसी की न मिल रही हो तो किस्मत को ही कोष ने लगते हैं।
लेकिन यहाँ तो ये बात चल रही थी कि बाबा के भरोसे निकलें है तो बाबा जैसे चाहेंगे वैसे पहुँचेंगे ।
हमने भी सोचा जो होगा देखा जायेगा आराम से लेटा जाये।
अभी लेते ही
[15/02, 11:48 pm] Sona Packers And Movers: अभी लेटे ही थे कि हमारे एक बहुत ही अजीज का मैसेज आया । Hello sanskari boy kya haal hai ?
मैंने रिप्लाई में गुस्से वाली इमोजी के साथ लिखा , gaali sun logi tum humse.
संस्कारी बॉय कोई बुरा शब्द तो नही था और ज्यादातर लोग मेरे लिए संस्कारी और अच्छा लड़का प्रयोग करते हैं।
लेकिन उसका बोलना हमको अच्छा नही लगता , मेरे हिसाब से मेरे बाद कोई मुझे थोड़ा सा जानता है तो वो ही है।
कुछ हाल चाल और हंसी मजाक वाली चैट के बाद उनका काल ही आ गया । और उन्होंने गणित के दो सवाल हमे पकड़ा दिए। वैसे तो मैं उनके किसी भी बात को नही टालता अगर वो मेरे हो सकने के बस में हो।
फिलहाल वो बच्चो वाले सवाल थे मैंने सॉल्व किया और उनको व्हाट्सएप कर दिया ।
इधर थोड़ी देर फेसबुक की रील्स देखने के बाद , बस झांसी पहुँच चुकी थी। और हमको चाय पीनी थी, हमको से मेरा मतलब बड़ी माँ और ऑन्टी जी हो , मैं रास्ते मे कुछ खाता पीता नहीं, बचपन मे सिखायी गयी बात को सायद कुछ ज्यादा ही सीरियसली के लिया है दिमाग ने।
चाय के बाद घर से आई खाने के पैकेट को खोला गया जिसपे मेरा हक़ सबसे ज्यादा था। भाई मेरे ही बैग में था न। अच्छे से नास्ता होने के बाद हम लोगो ने सेल्फी और फ़ोटो लिये ।
अब झांसी से निकले थे तो बिना पूछे ही एक भले मानुष बाबा के दूत बन कर आये और बोले आप लोग शिहोर जा रहे हो न, तो जहाँ ड्राइवर ने बताया था नाम तो नही याद मुझे बोले वहाँ मत उतरियेगा आप लोग अब देवास उतरियेगा और वहाँ से सीधे बस शिहोर के लिए मिलेगी।
अब मैंने गूगल बाबा की मदद ली तो पता चला कि अब हमें रात के तीन बजे उतर के बस से भोपाल और भोपाल से शिहोर जाने वाले 160km रास्ते को।
सुबह सात बजे उतर कर मात्र 115km चल कर ही शिहोर मिलने वाला था ।
सुबह के 7 बजे बस ने हमे देवास उतार दिया वहाँ एक पुलिस वाले से पूछने पर पता चला कि हमे देवास न उतर कर , देवास भोपाल बाय पास उतरना था। अब हमें वहाँ से बाय पास रोड तक जाने के दो रास्ते थे एक तो डेढ़ किलोमीटर पैदल जाते या फिर किसी ट्रक से लिफ्ट ले, दो महिलाओं और चार बैग के साथ दोनो ही कठिन काम था।
थोड़ी देर हम खड़े रहे इस आस में कि शायद कोई गाड़ी मिल जाये। थोड़ी देर बाद वो पुलिस वाले आये और हमको लिफ्ट ऑफ़र की।
हमें बायपास पर एक प्राइवेट बस मिली जिसमे बैठने की भी जगह नही थी। ऊपर से किराया 250₹ , फिलहाल मरता क्या न करता। तो हम बैठ भी गए । शिहोर से 5 किलोमीटर पहले से ही भारी जाम लगा था। कहाँ हमे 10 बजे तक सीहोर पहुँचना था कहाँ हम 1 बजे तक सीहोर से 5 किलोमीटर दूर ही थे।
फिर हमने बाकी की दूरी पैदल ही तय करने को सोचा , रास्ता तो पता था नही , तो शॉर्टकट के चक्कर मे भीड़ के पीछे हो लिए। सब यही बोल रहे थे कि यहाँ से 4 किलोमीटर दूर है।
लगभग 5 किलोमीटर चलने के बाद पता चला कि अभी भी 4 किलोमीटर दूर है। खेतों वाले इस रास्ते मे न तो कुछ खाने को था न ही पानी। किसी किसी खेत मे चना बोया था। भीड़ जिधर जाती आधा खेत साफ।
थोड़ी देर चलने के बाद एक सज्जन अपने खेत की सिंचाई कर रहे थे। जहां हमने ब्रश किया और कुछ नास्ता पानी किया जो हम घर से ही लाये थे।
रास्ते मे कुछ लोग वापस आते हुए मिले जो बोल रहे थे कि पांडाल में घुसने नही दिया जा रहा है। और सुबह रुद्राक्ष बंटने में भगदड़ मच गई थी जिसमे 2,3 महिलाओं की मौत हो गयी,
ये बातें हम लोगो के चलने से ज्यादा तेज चल रही थी। कोई कहता कि मर गई है कोई कह रहा था कि घायल है।
फिलहाल हम ऐसी जगह फंस चुके थे न आगे जा सकते थे न पीछे।
अब हमने आगे जाने का ही निश्चिय किया अगर पंडाल में व्यस्था नही हुई तो वहीं से ही भोपाल के लिए गाड़ी पकड़ लेते।
पर लोगो के मन मे विश्वास था रास्ते मे चाहे जितनी कठनाई हो , वहाँ पहुचने पर सारी अच्छी व्यवस्था मिलेगी।
जैसे तैसे वहाँ पहुँचे तो पंडाल लगा था हमने सोचा चलो आराम ही कर ले। 10 किलोमीटर के लगभग पैदल चल के आये थे। तब तक वहाँ एक महोदय आये और बोले कि 300₹ दो। हमने बोला कि हमको बाद 10 मिनट आराम करना है हम रुकेंगे नही। तो उन्होंने बोला कि 10 मिनट के 50₹ लगेंगे।
मुझे बहुत जोर से हंसी आयी क्योंकि हमको बताया गया था कि रहना खाना सब कुछ फ्री मिलने वाला था।
फिलहाल हम वहाँ से निकले और खाने की ओर रुख किया वहाँ कोई भी आइटम 100₹ से कम का नही था।
फ्री में रुकने वाली व्यवस्था के नाम पर खुले आसमान के नीचे पथरीली जमीन और खाने के लिये बूंदी, सब्जी और पूड़ी जिसको लेने के लिए जान जोखिम में ही डालना पड़ता।
फिलहाल खुले आसमान के नीचे चारो बैग रखे गए। और हमने सोचा यहाँ तक आये हैं तो बाबा के दर्शन कर ही ले। मेरी ड्यूटी बैग की रखवाली करना था और वो दोनों लोग दर्शन कर के आ गए। प्रसाद के नाम पर केवल सब्जी मिली थी जिसको बड़ी श्रद्धा से घर के लिए रख लिया।
हमारा प्लान शिवरात्रि तक का था लेकिन अब मुझे तत्काल निकलना था। यहाँ आये हुए लोग श्रद्धालु कम झगड़ालू ज्यादा थे।
रुद्राक्ष का पांडाल बन्द था जो कि 24 घण्टे रुद्राक्ष वितरण के लिए खुला होना पूर्व सुनिश्चित था।
शायद सुबह की अफवाह सच रही होगी या जो भी कुछ रहा हो। इस भीड़ में न तो हमे कोई दिलचस्पी थी जानने की न जरूरत।
भगवान भोलेनाथ पर तो भरोसा अब भी था किन्तु बाबा जी की जो नई नई इज्जत दिल मे बनी थी शायद अब वो हवा हो गयी थी।
यहाँ बाबा जी के फ्री पांडाल को तो माइक्रोस्कोप से ढूंढना पड़ रहा था। लेकिन पेड होटलो के बड़े बड़े चमकदार बैनर सब ओर दिख रहे थे।
मुझे बस इतना नही समझ आ रहा था इस पूजा के प्रांगण में इन होटलो को लगाने की जरूरत और इजाजत क्यों थी।
जिनको पेड सेवायें लेनी हो होती तो बाहर ही न लेते।
कई धार्मिक यात्रियों की तरह यह भी मेरे लिए बिलकुल वैसे ही थी जिसे मैं पूर्व की हुई यात्रओं की लिस्ट में ही नीचे लिख सकता था।
अब बड़ी माँ भी कह रही थी कि बिना खाये तो रहा जा सकता है पर बिना पानी के कोई कैसे रहेगा , चलो चलते हैं.......
धन्यवाद।।