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Monday, September 25, 2017

पुष्यभूति वंश या वर्धन वंश

गुप्त वंश के पतन के बाद जिन नए राजवंशों का उदय हुआ उनमे मौखरि, मैत्रक , पुष्यभूतिपरवर्ती गुप्त और गौंड प्रमुख है
इन राजवंशों में पुष्यभूति वंश के शासकों ने सबसे विशाल साम्राज्य स्थापित किया।
पुष्यभूति वंश के संस्थापक पुष्यभूति थे इनकी राजधानी थानेश्वर थी।

प्रभाकरवर्धन  इस वंश की स्वतंत्रता का जन्मदाता था तथा प्रथम प्रभावशाली शासक जिसने परमभटटारक और महाराजाधिराज जैसी सम्मानजनक उपाधि धारण की ।

प्रभाकर वर्धन की पत्नी यशोमती के दो पुत्र राजवर्धन एवं हर्षवर्धन हुए तथा एक कन्या भी जिसका नाम राजश्री था।

राजश्री का विवाह कन्नौज के मौखरि शासक ग्रहवर्मा के साथ हुआ था।
मालवा के शासक देवगुप्त ने वर्मा की हत्या कर दी और राजश्री को बंदी बना लिया । राजवर्धन ने देवगुप्त को मार डाला परंतु उसके  मित्र गौंड नरेश शशांक ने धोखा देकर राज्यवर्धन की हत्या कर दी।

शशांक शैव धर्म का अनुयाई था जिसने बोधि वृक्ष को कटवा दिया ।

राज्यवर्धन की मृत्यु के बाद 606 ई. में  16 वर्ष की अवस्था में राज्यवर्धन थानेसर की गद्दी पर बैठा ।
हर्ष को शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता था। जिसने परमभटटारक नरेश की उपाधि धारण की थी।

हर्ष ने शशांक को पराजित करके कन्नौज पर अधिकार कर लिया तथा उसे अपनी राजधानी बनाया।
हर्ष और पुलकेशिन द्वितीय के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ जिसमें हर्ष को पराजय मिली ।

चीनी यात्री हेनसांग हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया।  इसे यात्रियों में राजकुमार,  निति का पंडित एवं वर्तमान शाक्यमुनि कहा गया।

वह  नालंदा विश्वविद्यालय में पढ़ने एवं बौद्ध ग्रंथ संग्रह करने के उद्देश्य भारत आया था।

हर्ष  ने 641ई.में अपने दूत चीन  भेजें तथा 643 ई. एवं 445 ई में दो  चीनी दूत उसके दरबार में आये । हर्ष ने कश्मीर के शासक से बुद्ध के दांत अवशेष बलपूर्वक प्राप्त किये।

हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और सूर्य के अनन्य उपासक थे प्रारंभ में हर्ष भी अपने कुल देवता शिव के परम भक्त था ।
चीनी यात्री ह्वेनसांग से मिलने के बाद उसने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।
हर्ष के समय में नालंदा महाविहार महायान बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रधान केंद्र था।
हर्ष के समय में प्रयाग में प्रति पांचवे वर्ष वार्षिक समारोह आयोजित किया जाता था जिसे महामोक्षपरिषद कहा जाता था ।

बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे उन्होंने हर्षचरित एवं कादंबरी की रचना की ।

प्रियदर्शिका रत्नावली तथा नागानंद नाम 3 संस्कृत नाटक ग्रंथों की रचना हर्ष ने की थी कहा जाता है कि धावक नामक कवि ने हर्ष से पुरस्कार लेकर उसके नाम से यह 3 नाटक लिख दिए ।

हर्ष को भारत का अंतिम हिंदू सम्राट कहा गया है लेकिन वह ना तो कट्टर हिंदू था और ना ही सारे देश का शासक है ।

हर्ष के आधिन्स्थ शासक महाराज अथवा महासामंत कहे जाते थे।
मंत्रिपरिषद में मंत्री को सचिव यह कहा जाता था। प्रशासन की सुविधा के लिए हर्ष का साम्राज्य कई प्रांतों में विभाजित था।

प्रांतों को भुक्ति कहा जाता था और प्रतेक भुक्ति का शासक राजस्थानिक , उपरिक ,  कहा जाता था।

हर्षचरित मे प्रांतीय शासक के लिए लोकपाल शब्द आया है भुक्ति का विभाजन जिलों में हुआ था और जिले की संज्ञा विषय थी जिसका प्रधान विषयपति

विषय के  अंतर्गत पाठक (आधुनिक तहसील)होते थे । ग्राम ,शासन की सबसे छोटी इकाई थी ।ग्राम शासन का प्रधान ग्रामाक्षपटलिक कहा जाता था।

पुलिसकर्मियों को चाट या भाट कहा गया है ।
दंडपाशिक तथा दाण्डिक पुलिस विभाग के अधिकारी होते थे ।
अश्वसेना के अधिकारियों को बृहदेश्वर। तथा  पैदल सेना के अधिकारियों को बलाधिकृत तथा महाबलाधिकृत कहा जाता था।

हर्षचरित में सिंचाई के साधन के रूप में तुला यंत्र का उल्लेख मिलता है हर्ष के समय मथुरा सूती वस्त्रो के निर्माण के लिए प्रसिद्ध थी ।

हर्षचरित के अनुसार हर्ष की मंत्री परिषद

भंडी            -   प्रधान सचिव

सिंहनाद       -  प्रधान सेनापति

कुन्तल        - अश्वसेना का प्रधान

स्कन्दगुप्त    -  गज सेना का प्रमुख

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